महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 38-58

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त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद

केशव! इसमें संदेह नहीं कि आप ही पाण्डवोंके अवलम्ब हैं। कुन्तीमें हम सभी पुत्र आपकी ही शरणमें हैं। जब समय आयेगा, तब आप पुनः अपने इस कथनसे अनुसार सब कार्य करेंगे, इसमें संदेह नहीं हैं। 'भवगन्! हमने अपनी प्रतीक्षाके अनुसार बारह वर्षोंका सारा समय निर्जन वनोंमें घूमकर बिता दिया हैं। अब अज्ञातवासकी अवधि भी विधिपूर्वक पूर्ण कर लेने पर हम समस्त पाण्डव आपकी आज्ञाके अधीन हो जायेंगे। नाथ! आपकी की बुद्धि संलग्न रहे हैं। प्रभो! दानधर्मसे युक्त हम सभीकुन्ती पुत्र सेवक, परिजन, स्त्री, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवोंसहित केवल आपकी ही शरणमें हैं'। वैशम्पायनजी कहते हैं-भारत! भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय अनेक सहस्त्र वर्षोंकी अवस्थावाले तपोवृद्ध धर्मात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि आते दिखायी दिये। वे रूपऔर उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा अजर-अमर थे। वैसे बड़े बूढ़े होनेपर भी वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो पच्चीस वर्षकी अवस्थाके तरूण हों। हजारों वर्षोंकी अवस्थावाले उन वृद्ध महर्षिके पधारनेपर पाण्डवोंसहित भगवान् श्रीकृष्ण तथा समस्त ब्राह्मणोंने उनका पूजन किया। पूजित होनेपर जब वे अत्यन्त विश्वास करने योग्य मुनिश्रेष्ठ आसनपर विराजमान हो गये, तब वहां आये हुए ब्राह्मणों और पाण्डवोंकी सम्मतिसे भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा। श्रीकृष्ण बोले-मार्कण्डेयजी! आपके उपदेश सुननेकी इच्छासे यहां पाण्डवोंके साथ साथ बहुतसे ब्राह्मण भी पधारे हुए हैं। द्रौपदी, सत्यभामा तथा मैं, सब लोग आपकी उतम वाणीका रसास्वादन करना चाहते हैं। आप प्राचीन कालके नरेशों, नारियों तथा महर्षिकी पुरातन पुण्य कथाएं सुनाइये और हमलोगोंसे सनातन सदाचारका वर्णन कीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! वे सब लोग वहां बैठे ही थे कि विशुद्ध अन्तःकरणवाले देवर्षि नारद भी पाण्डवोंसे मिलनेके लिये वहां आये। तब उन सभी श्रेष्ठ मनीषी पुरूषोंने और उन महात्मा नारदजीको भी पाद्य और व्यर्थ आदि देकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। तब देवर्षि नारदने उन सबको कथा सुननेके लिये अवसर निकालकर तैयार हुआ जान वक्त मार्कण्डेय मुनिकी उस कथा सुननेके विचारका अनुमोदन किया ।उस समय उपर्युक्त अवसरके ज्ञाता सनातन भगवान् श्रीकृष्णने मार्कण्डेयजीसे मुसकराते हुए कहा-'महर्षे! आप पाण्डवोंसे जो कुछ कहना चाहते थे, वह कहिये'। उनके ऐसा कहनेपर महातपस्वी मार्कण्डेय मुनिने कहा- 'पाण्डवो! तुम सब लोग क्षण भरके लिये चुप हो जाओ; क्योंकि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना हैं'। उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन ब्राह्मणोंसहित पाण्डव मध्याहनकालके सूर्यके भांति तेजस्वी उन महामुनिको देखते हुए उनके वक्तव्यको सुननेके लिये चुप हो गये। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! महामुनि मार्कण्डेयजीके बोलनेके लिये उद्यत देख कुरूराज पाण्डु-पुत्र युधिष्ठिरने कथा प्रारम्भ करनेके लिये इस प्रकार प्रेरित किया। 'महामुने! आप देवताओं, दैत्यों, ऋषियों, महात्माओं तथा समस्त राजर्षियों के चरित्रों को जाननेवाले प्राचीन महर्षि हैं। 'हमारे मनमें दीर्घकालसे यह इच्छा थीकि हमें आपकी सेवा और सत्संगका शुभ अवसर मिले। ये देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भी हमसे मिलनेके लिये यहां पधारे हैं। 'ब्राह्मन्! जब मैं अपनेको सुखसे वंचित पाता हूं और दुराचारी धृतराष्टपुत्रोंको सब प्रकारसे समृद्धिशाली होते देखता हूं, तब स्वभावतः ही मेरे मनमें एक विचार उठता हैं। 'मैं सोचता हूं, शुभ और अशुभ कर्म करनेवाला जो पुरूष हैं, वह अपने उन कर्मोंका फल कैसे भोगता हैं तथा ईश्वर उन कर्मफलोंका रचयिता कैसे होता हैं ? ब्रह्मावेताओंमें श्रेष्ठ मुनीश्वर! सुख और दुखकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंमें मनुष्योंकी प्रवृति कैसे होती हैं ? मनुष्यका किया कर्म इस लोकमें ही उसका अनुसरण करता हैं अथवा पालौकिक शरीरमें भी ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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