महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 78-95

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त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद

वहां दूसरे स्थूल शरीरमें उसके पूवजन्मका किया हुआ कर्म छायाकी भांति सदा उसके पिदे लगा रहता और यथा समय अपना फल देता हैं। इसलिये जीव सुख अथवा दुःख भोगनेके लिये योग्य होकर जन्म लेता हैं। यमराजके विधान ( पुण्य और पापके फल भोग ) में नियुक्त हुआ जीव अपने शुभ अथवा अशुभ लक्षणोंद्वारा अपनेको मिले हुए सुख अथवा दुःखका निवारण करनेमें असमर्थ हैं। यह बात ज्ञान दृष्टिवाले महात्मा पुरूषोंद्वारा देखी जाती हैं। युधिष्ठिर! यह तत्वज्ञानशून्य मूढ़ मनुष्योंकी स्वर्ग नरकरूप गति बतायी गयी हैं। अब इसके बाद विवेकी पुरूषोंको प्राप्त होनेवाली उतम गतिका वर्णन सुनो। ज्ञानी मनुष्य तपस्वी, सम्पूर्ण शास्त्रोंके स्वाध्यायमें तत्पर, स्थिरतापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले, सत्यपरायण, गुरूसेवामें जितेन्द्रिय ओर अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। वे शुद्ध योनिमें जन्म लेते और प्रायः शुभ लक्षणोंसे सुशोभित होते हैं। जितेन्द्रिय होनेके कारण वे मनको वशमें रखते हैं और सात्विक अन्तःकरण के होने के कारण नीरोग होते हैं। दुःख और त्रास के क्षीण होनेके कारण वे उपद्रवरहित होते हैं। विवेकी पुरूष गर्भसे गिरते, जन्म लेते अथवा गर्भमें ही रहते समय भी ज्ञान-दृष्टि से अपने आपका और परमात्माका सर्वथा यथार्थ अनुभव करते हैं। लौकिक तथा शास्त्रीय ज्ञानको प्रत्यक्ष करनेवाले वे महामना ऋषि इस कर्मभूमिमें आकर फिर देवलोकमें चले जाते हैं। राजन्! विवेकी मनुष्य कर्मोंका कुछ फल प्रारब्धवश प्राप्त करते हैं, कुछ कर्मोंका फल हठात् प्राप्त होता हैं और कुछ कर्मोंका फल अपने उद्योगसे ही प्राप्त होता हैं। इस विषयमें तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! मनुष्यलोक मैं जिसे परम कल्याणकी बात समढता हूं, उसके विषयमें यह उदाहरण सुनो। कोई मनुष्य इस लोकमें हीपरम सुख पाता हैं, परलोकमें नहीं। किसीको परलोकमें ही परम कल्याणकी प्राप्ति होती हैं, किसीको परलोक मैं ही परम कल्याणकी प्राप्ति होती हैं, इस लोकमें नहीं। किसीको इहलोक और परलोक दोनोंमें परम श्रेयकी प्राप्ति होती हैं तथा किसीको न तो परलोकमें उत्तम सुख मिलता हैं और न इस लोकमें ही। जिनके पास बहुत धन होता हैं, वे अपने शरीरको हर तरहसे सजाकर नित्य विषयोंमें रमण करते अर्थात् विषय-सुख भोगते हैं। शत्रुदमन! सदा अपने शरीरके ही सुखमें आसक्त हुए उन मनुष्योंको केवल इसी लोकमें सुख मिलता हैं, परलोकमें उनके लिये सुखका सर्वथा अभाव हैं। शत्रुदमन! जो लोग इस लोकमें योगसाधन करते हैं, तपस्यामें संलग्न होते हैं ओर स्वाध्यायमें तत्पर रहते हैं तथा इस प्रकार प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहकर इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए ( तपस्याद्वारा ) अपने शरीरको दुर्बल कर देते हैं, उनके लिये इस लोकमें सुख नहीं हैं। वे परलोकमें ही परम कल्याणके भागी होते हैं। जो लोग कर्तव्य-बुद्धिसे पहले धर्मका ही आचरण करते हैं और उस धर्मसे ही ( न्याययुक्त ) धनका उपार्जन कर यथासमय स्त्रीसे विवाह करके उसके साथ यज्ञ-याग और ईश्वरभक्ति आदिका अनुष्ठान करते हैं, उनके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद हैं। जो मूढ़ न विद्याके लिये, न तपके लिये और न दानके लिये ही प्रयत्न करते हैं एवं न धर्मपर्वक संतानोत्पादकके लिये ही यत्नशील होते हैं, वे न तो सुख पाते हैं और न भोग ही भोगते हैं। उनके लिये न तो इस लोंकमें सुख हैं और न परलोकमें। राजा युधिष्ठिर! तुम सब लोग बड़े पराक्रमी और धैर्यवान् हो। तुमसे अलौकिक ओज भरा हैं। तुम सुदृढ़ शरीरसे सम्पन्न हो और देवताओं कार्य सिद्ध करनेके लिये परलोकसे इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हो। यही कारण हैं कि तुमने सभी उत्तम विद्याएं सीख ली हैं। तुम सभी शूर-वीर तथा तपस्या, इन्द्रियसंयम और उत्तम आचार-व्यवहारमें सदा ही तत्पर रहनेवाले हो। अतः ( इस संसार में बडे-बडे महत्वपूर्ण कार्य करके ) देवताओं, ऋषियों और समस्त पितरोंको उत्तम विधिसे तृप्त करोगे। तत्पश्चात् अपने सत्कर्मोंके फलस्वरूपतुम सब लोग क्रमसे पुण्यात्माओंके निवास स्थान परम स्वर्गलोकको चले जाओगे। इसलिये कौरवराज! तुम ( अपने वर्तमान कष्टको देखकर ) मनमें किसी प्रकारकी शंकाको स्थान न दो। यह क्लेश तो तुम्हारे भावी सुखका ही सूचक हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेय समास्यापर्वमें एक सौ तिरासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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