महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 59-77

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त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 59-77 का हिन्दी अनुवाद

द्विजश्रैष्ठ! देहधारी जीव अपने शरीरका त्याग करके जब परलोकमें चला जाता हैं, तब उसके शुभ और अशुभ कर्म उसको कैसे प्राप्त करते हैं और इहलोक और परलोकमें जीवका उन कर्मोंके फलसे किस प्रकार संयोग होता हैं ?'भृगुनन्दन! कर्मोंका फल इसी लोकमें प्राप्त होता हैं या परलोकमें ? प्राणीकी मृत्यु हो जानेपर उसके कर्म कहां रहते हैं। मार्कण्डेयजी बोले-वक्ताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हारा यह प्रश्न यथार्थ और युक्तिसंगत हैं। तुम्हें जाननेयोग्य सभी बातोंका ज्ञान हैं, तो भी तुम केवल लोक-मर्यादाकी रक्षाके लिये यह प्रश्न उपस्थित करते हो। मनुष्य इहलोक या परलोकमें जिस प्रकार सुख और दुःख भोगता हैं, इसके विषयमें तुम्हें अपना विचार बताऊँगा। तुम एकाग्रचित होकर सुनो। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । उन्होंने जीवोंके लिये निर्मल तथा विशुद्ध शरीर बनाये। साथ ही धर्मका ज्ञान करानेवाले धर्मशास़्त्रोंको प्रकट किया। उस समयके सब मनुष्य उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तथा सत्यवादी थे। उनका अभीष्ट-फलविषयक संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता था। कुरूश्रेष्ठ! वे सभी मनुष्य ब्रह्मास्वरूप पुण्यात्मा और चिरजीवी थे। सभी स्वच्छापूर्वक आकाशमार्गसे उड़कर देवताओंसे मिलने जाते और स्वच्छाचारी होनेके कारण इच्छा होते ही पुनः वहांसे लौट आते थे। वे अपनी इच्छा होनेपर ही मरते और इच्छाके अनुसार ही जीवित रहते थे। स्वतंत्रता पूर्वक सर्वत्र विचरण करते थे। उनके मार्गमें बाधाएं बहुत कम आती थी। उन्हें कोई भय नहीं होता था। वे उपद्रवशून्य तथा पूर्णकाम थे। देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंके समुदायका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन होता था। वे सभी धर्मोंकी प्रत्यक्ष करनेवाले, जितेन्द्रिय तथा ईष्य्रा रहित होते थे। उनकी आयु हजारों वर्षोंकी होती थी और वे हजार हजार पुत्र उत्पन्न करते थे। तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् भूतलपर विचरनेवाले मनुष्य काम और क्रोधके वशीभूत हो गये। वे छल कपट और दम्भसे जीविका चलाने लगे। उनके मनको लोभ और मोहने दबा लिया। इन दोषोंके कारण उन्हें इच्छा न होते हुए भी अपना शरीर त्यागनेके लिये विवश होना पड़ा वे पापपरायण हो अपने अशुभ कर्मोंके फलस्वरूप पशु-पक्षी आदिकी योनियोंमें जाने और नरकमें गिरने लगे। विचित्र सांसारिक योनियों में बारंबार जन्म लेकर दुःखसे संतप्त होने लगे। उनकी कामनाएं, उनके संकल्प और उनके ज्ञान सभी निष्फल थे। उनकी स्मरणशक्ति क्षीण हो गयी थी। वे सभी परस्पर संदेह करते हुए एक दूसरेके लिये क्लेशदायक बन गये। उनके शरीरमें प्रायः उनके अशुभ कर्मोंके चिह्न ( कोढ़ आदि ) प्रकट होने लगे। कोई अधम-कुलमें जन्म लेते, कोई बहुतसे रोगोंके शिकार बने रहते ओर कोई दुष्ट स्वभावके हो जाते थे। उनमेंसे कोई भी प्रतापी नहीं होता था। इस प्रकार पापकर्मोंमें प्रवृत होनेवाले पापियोंकी आयु उनके कर्मानुसार बहुत कम हो गयी। उनके पापकर्मोंके भयंकर फल प्रकट होने लगे। वे अपनी सभी अभीष्ट वस्तुओंके लिये दूसरेके सामने हाथ फैलाकर याचना करने लगे। कितने ही नास्तिक ओर विचलित हो गये। कुन्तीनन्दन! इस संसारमें मृत्युके पश्चात् जीवकी गति उनके अपने अपने कर्मोंके अनुसार ही होती हैं। परंतु मरनेके बाद ज्ञानी और अज्ञानीकी कर्मराशि कहां रहती हैं ? कहां रहकर वह पुण्य अथवा पापका फल भोगता हैं ? इस दृष्टिसे जो तुमने प्रश्न किया हैं, उसके उतरमें मैं सिद्धांत बता रहा हूं। यह मनुष्य ईश्वरके रचे हुए पूर्व शरीरके द्वारा ( अन्तःकरणमें ) शुभ और अशुभ कर्मोंकी बहुत बड़ी राशि संचित कर लेता हैं। फिर आयु पूरी होनेपर वह इस जरा-जर्जर स्थूल शरीरका त्याग करके उसी क्षण किसी दूसरी योनि ( शरीर ) में प्रकट होता हैं। एक शरीरको छोड़ने और दूसरोंको ग्रहण करनेके बीचमें क्षणभरके लिये भी वह असंसारी नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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