महाभारत वन पर्व अध्याय 187 श्लोक 1-24
सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
वैवस्वत मनुका चरित्र तथा मत्स्यावतारकी कथा
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! इसके बाद पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने मार्कण्डेयजीसे कहा-'अब आप हमसे वैवस्वत मनुके चरित्र कहिये'। मार्कण्डेयजी बोले-नरश्रेष्ठ नरेश! विवस्वान् ( सूर्य ) के एक अत्यन्त प्रतापी पुत्र हुआ, जो प्रजापतिके समान कान्तिमान् और महान् ऋषि था। वह बालक मनु ओज, तेज, कांति और विशेषतः तपस्याद्वारा अपने पिता भगवान् सूर्य तथा पितामह महर्षि कश्यपसे भी आगे बढ़ गया। महाराज! उसने बदरिकाश्रममें जाकर दोनों बांहें उपर उठाये एक पैरसे खड़ा हो दस हजार वर्षोंतक बड़ी भारी तपस्या की। उस समय उसका सिर नीचेकी ओर झुका हुआ था और वह एकटक नेत्रोंसे निरन्तर देखता रहता था। इस प्रकार बड़ी दृढ़ता के साथ बालकने घोर तप किया। ( वही बालक वैवस्वत मनुके नामसे प्रसिद्ध हुआ। ) एक दिनकी बात हैं, मनु भीगे चीर और जटा धारण किये चीरिणी नदीके तटपर तपस्या कर रहे थे। उस समय एक मत्स्य आकर इस प्रकार बोला-'भगवन्! मैं एक छोटा-सा मत्स्य हूं। मुझे ( अपनी जातिके ) बलवान् मत्स्योंसे बराबर भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! आप उससे मेरी रक्षा करें। 'बलवान् मत्स्य विशेषतः दुर्बल मत्स्यको अपना आहार बना लेते हैं, यह सदासे हमारी मत्स्य जातिकी नियत वृति है। 'इसलिये भयके महान् समुद्रमें मैं डूब रहा हूं। आप विशेष प्रयत्न करके मुझे बचानेका कष्ट करें। आपके इस उपकारके बदले मैं भी प्रत्युपकार करूंगा। मत्स्यकी यह बात सुनकर वैवस्वत मनुको बड़ी दया आयी। उन्होंने स्वयं अपने हाथसे चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेत रंगवाले उस मत्स्यको उठा लिया और पानीके बाहर लाकर मटकेमें ड़ाल दिया। राजन्! वहां उन्होंने बड़े आदरके साथ उसका पालनपोषण किया और वह दिन-दिन बढ़ने लगा। मनुने उसके प्रति पुत्रके समान विशेष वात्सल्य भाव प्रकट किया। तदनन्तर दीर्घकाल बीतनेपर वह मस्त्य इतना बड़ा हो गया कि मटके में उसका रहना असम्भव हो गया। तब एक दिन मत्स्यने मनुको देखकर फिरकहा- 'भगवन्! अब आप मेरे लिये इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिये'। तब वे भगवान् मनु उस मत्स्यको उस मटकेसे निकालकर एक बहुत बड़ी बावलीके पास ले गये। शत्रुविजयी युधिष्ठिर! मनुने उसे वहीं ड़ाल दिया। अब वह मत्स्य अनेक वर्षोंतक उसीमें क्रमशः बढ़ता रहा। कमलनयन! उस बावलीकी लम्बाई दो योजन और चौड़ाई एक योजनकी थीं; परंतु उसमें भी उस मत्स्यका रहना कठिन हो गया। नराधिप कुन्तीनन्दन! वह उस बावलीमें हिलडुल भी नहीं पाता था। अतः मनुको देखकर वह पुनः बोला। 'भगवन्! साधुबाबा! अब आप मुझे समुद्रकी प्यारी पटरानी गंगाजीमें ले चलिये। मैं वही निवास करूंगा अथवा तात! आप जहां उचित समझें, ले चलें। अनघ! मुझे दोषदृष्टिका परित्याग करके सदा आपके आज्ञापालन में स्थिर रहना है; क्योंकि आपके कारण ही मैं भलीभांति पुष्ट होकर इतना बड़ा हुआ हूं'। मत्स्यके ऐसा कहनेपर जितेन्द्रिय, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान् मनुने उसे स्वयं ले जाकर गंगामें ड़ाल दिया। शत्रुदमन! फिर वह मत्स्य वहां कुछ कालतक बढ़ता रहा। फिर एक दिन मनुको देखकर उसने कहा-'प्रभो! मेरा शरीर अब इतना बड़ा हो गया है कि मैं गंगाजीमें हिलडुल नहीं सकता। अतः मुझे शीघ्र ही समुद्रमें ले चलिये। भगवन्! आप प्रसन्न होकर मुझपर इतनी कृपा अवश्य कीजिये। कुन्तीनन्दन! तब मनुने स्वयं उस मत्स्यको गंगाजीके जलसे निकालकर समुद्रतक पहुंचाया और उसमें छोड़ दिया।
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