महाभारत वन पर्व अध्याय 187 श्लोक 25-50

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सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 25-50 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! यद्यपि वह मत्स्य बहुत विशाल था, तो मेरी जब मनु उसे ले जाने लगे, तब वह ऐसा बन गया, जिससे आसानीसे ले जाया जा सके। उसका स्पर्श और गन्ध दोनों मनुके लिये बड़े सुखकर थे। जब मनुने उस मत्स्यको समुद्रमें ड़ाल दिया, तब इसने उनसे मुसकराते हुए से कहा- 'भगवन्! आपने विशेष मनोयोगके साथ सब प्रकारसे मेरी रक्षा की है, अब आपके लिये जिस कार्यका अवसर प्राप्त हुआ है, वह बताता हूं, सुनिये- 'भगवन्! यह सारा-का-सारा चराचर पार्थिव जगत् शीघ्र ही नष्ट होनेवाला हैं। महाभाग! सम्पूर्ण जगत्का प्रलय हो जायगा। 'यह सब लोकोंके सम्प्रक्षालन ( एकार्णवके जलसे घुलकर नष्ट होने ) का समय आ गया हैं। इसलिये मैं आपको सचेत करता हूं और आपके लिये जो परम उत्तम हितकी बात है, उसे बताता हूं। 'सम्पूर्ण जंगमों तथा स्थावर पदार्थोंमें जो हिलडुल सकते हैं और जो हिलने-डुलनेवाले नहीं हैं, उन सबके लिये अत्यन्त भयंकर समय आ पहंुचा हैं। 'आपको एक मजबूत नाव बनवानी चाहिये, जिसमें ( मजबूत ) रस्सी जुटी हो। महामुने! फिर आप सप्तर्षिके साथ उस नावपर बैठ जाइये। 'पूर्वकालमें ब्राह्मणोंने जो सब प्रकारके बीज बताये हैं, उनका पृथक्-पृथक् संग्रह करके उन्हें सुरक्षितरूपसे उस नावपर रख लें। 'मुनिजनोंमें प्रेमी तपस्वी नरेश! उस नावमें बैठे रहकर आप मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा। मैं आपके पास अपने मस्तकमें सींग धारण किये आउंगा। उसीसे आप मुझे पहचान लेंगे। इस प्रकार यह सब कार्य आपको करना हैं। अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूं और यहांसे जाता हूं। उस महान् जलराशिको आपलोग मेरी सहायताके बिना पार नहीं कर सकेंगे। 'प्रभो! आप मेरी इस बातमें तनिक भी संदेह न करें।' तब राजाने उस मत्स्यसे कहा-'बहुत अच्छा! मैं ऐसा ही करूंगा। शत्रुदमन! वे दोनों एक दूसरेसे विदा लेकर इच्छानुसार वहांसे चले गये। महाराज! तदनन्तर मनु मत्स्यभगवान् के कथनानुसार सम्पूर्ण बीज लेकर एक सुन्दर नौकाद्वारा उत्ताल तरंगोंसे भरे हुए महासागरमें तैरने लगे। शत्रुदमनविजयी नरेश्वर! तदनन्तर मनुने भगवान् मत्स्य का चिन्तन किया। यह जानकर श्रृंगधारी भगवान् मत्स्य वहां शीघ्र आ पहुंचे। नरश्रेष्ठ भरतकुलशिरोमणि! समुद्रमें अपने पूर्वकथित रूपसे उंचे पर्वतकी भांति श्रृंगधारी मत्स्य भगवान् से आया देख उनके मस्तकवर्ती सींगमें उन्होंने बंटी हुई रस्सी बांध दी। शत्रुकी राजधानीपर विजय पानेवाले पुरूषसिंह! मनुने वह नाव उस सींगमें अटका दी। रस्सीमें बंधे हुए मत्स्य भगवान् उन सबको नौकाद्वारा पार उतारनेके लिये उस खारे पानीके समुद्रमें बड़े वेगसे नाव खींचने लगे। मनुजेश्वर! उस समय समुद्र अपनी लहरोंसे नृत्य करता-सा जान पड़ता था। शत्रुविजयी नरेश्वर! उस महासागरमें प्रचण्ड वायुके झोंकोंसे विक्षुब्ध होकर हिलती-डुलती हुई वह नौका चंचल चित्तवाली मतवाली स्त्रीके समान झूम रही थी। उस समय न तो भूमिका पता लगता था और न दिशाओं तथा विदिशाओंका ही मान होता था। भरतकुलभूषण नरेश्वर! आकाश और द्युलोक सब कुछ जलमय ही प्रतीत होता था। इस प्रकार जब सारा विश्व एकार्णवके जलमें डूबा हुआ था, उस समय केवल सप्तर्षि, मनु और मत्स्य भगवान्-ये ही नौ व्यक्ति दृष्टिगोचर होते थे। राजन्! इस तरह बहुत वर्षोंतक भगवान् मत्स्य आलस्यरहित होकर उस अगाध जलराशिमें उस नौकाको खेंचते रहे। भरतकुलतिलक! तदनन्तर हिमालयका जो सर्वोच्च शिखर था, वहां मत्स्य भगवान् उस नावको खींचकर ले गये। कुरूनन्दन! तब वे धीरे-धीरे हंसते हुए उन समस्त ऋषियोंसे बोले-'आपलोग हिमालयके इस शिखरमें इस नावको शीघ्र बांध दें।' भरतश्रेष्ठ! मत्स्यका वह वचन सुनकर उन महर्षियोंने तुरंत वहां हिमालयके शिखरमें वह नौका बांध दी। तभीसे हिमालयका वह उत्तम शिखर 'नौकाबन्धन' के नामसे विख्यात हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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