महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 1-21
अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
चारों युगोंकी वर्ष-संख्या एवं कलियुगके प्रभावका वर्णन, प्रलयकालका दृश्य और मार्कण्डेयजीको बालमुकुन्दजीने दर्शन, मार्कण्डेयजीका भगवान् के उदरमें प्रवेशकर ब्रह्माण्डदर्शन करना और फिर बाहर निकलकर उनसे वार्तालाप करना
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर विनयशील धर्मराज युधिष्ठिर ने यशस्वी मार्कण्डेय मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। 'महामुने! आपने हजार-हजार युगोंके अन्तमें होनेवाले अनेक महाप्रलयके दृश्य देखे हैं। इस संसारमें आपके समान बड़ी आयुवाला दूसरा कोई पुरूष नहीं दिखायी देता। ब्रह्मावेताओंमें श्रेष्ठ महर्षें! परमेष्ठी महात्मा ब्रह्माजीको छोड़कर दूसरा कोई आपके समान दीर्घायु नहीं है। ब्रह्मान्! जब यह संसार देवता, दानव तथा अन्तरिक्ष आदि लोकोंसे शून्य हो जाता हैं उस प्रलयकालमें केवल आप ही ब्रह्माजीके पास रहकर उनकी उपासना करते हैं। ब्रह्मार्षे! फिर प्रलयकाल व्यतीत होनेपर जब पितामह ब्रह्मा जागते हैं, तब सम्पूर्ण दिशाओंमें वायुको फैलाकर उसके द्वारा समस्त जलराशिको इधर-उधर छितराकर ( सूखे स्थानोंमें ) ब्रह्माजीके द्वारा जो जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उभ्दिज नामक चार प्रकारके प्राणी रचे जाते हैं, उन्हें एकमात्र आप ही ( सबसे पहले ) अच्छी तरह देख पाते हैं। द्विजश्रेष्ठ! आपने तत्परतापूर्वक चित्तवृतियोंका निरोध करके सम्पूर्ण लोकोंके पितामह साक्षात् लोकगुरू ब्रह्माजीकी आराधना की है। विप्रवर! आपने अनेक बार इस जगत् की प्रारम्भिक सृष्टिको प्रत्यक्ष किया है और घोर तपस्याद्वारा ( मरीचि आदि ) प्रजापतियोंको भी जीत लिया है। आप भगवान् नारायणके समीप रहनेवाले भक्तोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं। परलोकमें आपकी महिमाका सर्वत्र गान होता है। आपने पहले स्वेच्छासे प्रकट होनेवाले सर्वव्यापक ब्रह्माकी उपलब्धिके स्थानभूत हदयकमलकी कर्णिकाका ( योगकी कलासे ) अलौकिक उद्घाटन कर वैराग्य और अभ्याससे प्राप्त हुई दिव्यदृष्टिद्वारा विश्वरचयिता भगवान् का अनेक बार साक्षात्कार किया है। इसीलिये सबको मारनेवाली मृत्यु तथा शरीरको जर्जर बना देनेवाली जरा आपका स्पर्श नहीं करती हैं। ब्रह्मार्षें! इसमें भगवान् परमेष्ठीका कृपाप्रसाद ही कारण हैं। ( महाप्रलयके समय ) जब सूर्य, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, अन्तरिक्ष और पृथ्वी आदिमेंसे कोई भी शेष नहीं रह जाता, समस्त चराचर जगत् उस एकार्णवके जलमें डूबकर अदृश्य हो जाता हैं, देवता और असुर नष्ट हो जाते हैं तथा बड़े-बड़े नागोंका संहार हो जाता हैं, उस समय कमल और उत्पलमें निवास तथा शयन करनेवाले सर्वभूतेश्वर अमितात्मा ब्रह्माजीके पास रहकर केवल आप ही उनकी उपासना करते हैं। द्विजोत्तम! यह सारा पुरातन इतिहास आपका प्रत्यक्ष देखा हुआ है। इसलिये मैं आपके मुखसे सबके हेतुभूत कालका निरूपण करनेवाली कथा सुनना चाहता हूं। विप्रवर! केवल आपने ही अनेक कल्पोंकी श्रेष्ठ रचना का बहुत बार अनुभव किया हैं। सम्पूर्ण लोकोंमें कभी कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो। मार्कण्डेयजी बोले-राजन्! मैं स्वयं प्रकट होनेवाले सनातन, अविनाशी, अव्यक्त, सूक्ष्म, निर्गुण एवं गुणस्वरूप पुराणपुरूषको नमस्कार करके तुम्हें वह कथा अभी सुनाता हूं। पुरूषसिंह! ये जो हमलोगोंके पास बैठे हुए पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन हैं, ये ही संसारकी सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। ये ही भगवान् समस्त प्राणियोंके अन्तर्यामी आत्मा और उनके रचियता हैं। ये पवित्र, अचिन्त्य एवं महान्-आश्चर्यमय तत्व कहे जाते हैं। इनका न आदि हैं, न अन्त! ये सर्वभूतस्वरूप, अव्यय और अक्षय हैं। ये ही सबके कर्ता हैं, इनका कोई कर्ता नहीं हैं। पुरूषार्थ की प्राप्तिमें भी ये ही कारण हैं। ये अन्तर्यामी आत्मा होनेसे सबको जानते हैं, परंतु इन्हें वेद भी नहीं जानते हैं। नृपशिरोमणे! नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत् का प्रलय होनेके पश्चात् इन आदिभूत परमेश्वरसे ही यह सम्पूर्ण आश्चर्यमय जगत् पुनः उत्पन्न हो जाता हैं।
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