महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 124-143

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अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 124-143 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर! मैं निरन्तर दौड़ लगाता और चिन्तामें पड़ा रहता था। महाराज! जब बहुत वर्षोंतक भ्रमण करनेपर भी उस महात्माके शरीरका अन्त नहीं मिला, तब मैंने मन, वाणी और क्रियाद्वारा उन वरदायक एवं वरेण्य देवताओं ही विधिपूर्वक शरण ली। पुरूषरत्न युधिष्ठिर! उनकी शरण लेते ही मैं वायुके समान वेगसे उक्त महात्मा बालकके खुले हुए मुखकी राहसे सहसा बाहर निकल आया। नरश्रेष्ठ राजन्! बाहर आकर देखा तो उसी बरगदकी शाखापर उसी बाल वेषसे सम्पूर्ण जगत् को अपने उदरमें लेकर श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित वह अमित तेजस्वी बालक पूर्ववत् बैठा हुआ है। तब महातेजस्वी पीताम्बरधारी श्रीवत्सभूषित कान्तिमान् उस बालकने प्रसन्न होकर हंसते हुए से मुझसे कहा- 'मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय! क्या तुम मेरे इस शरीरमें रहकर विश्राम कर चुके ? मुझे बताओ'। फिर दो ही घड़ी में मुझे एक नवीन दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे मैं अपने आपको मायासे मुक्त और सचेत अनुभव करने लगा। तात! तदनन्तर मैंने कोमल और लाल रंगकी अंगुलियोंसे सुशोभित लाल-लाल तलनेवाले उस बालकके सुन्दर एवं सुप्रतिष्ठित चरणोंको प्रयत्नपूर्वक पकड़कर उन्हें अपने मस्तकसे प्रणाम किया। उस अमित तेजस्वी शिशुका अनन्त प्रभाव देखकर मैं यत्नपूर्वक उसके समीप गया और विनीत भावसे हाथ जोड़कर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा उस कमलनयन देवताका दर्शन किया। फिर हाथ जोड़े नमस्कार करके मैंने उससे इस प्रकार कहा-देव! मैं आपको और आपकी इस उत्तम मायाको जानना चाहता हूं। 'भगवन्! मैंने आपके मुखकी राहसे शरीरमें प्रवेश करके आपके उदरमें समस्त सांसारिक पदार्थोंका अवलोकन किया हैं। 'देव! आपके शरीरमें देवता, दानव, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, नाग तथा समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत् विद्यमान हैं। 'प्रभो! आपकी कृपासे आपके शरीरके भीतर निरन्तर शीघ्र गतिसे घूमते रहनेपर भी मेरी स्मरणशक्ति नष्ट नहीं हुई हैं। 'महाप्रभो! मैं अपनी अभिलाषा न रहनेपर भी केवल आपकी इच्छासे बाहर निकल आया हूं। कमलनयन! आप सर्वोंत्कृष्ट देवताको मैं जानना चाहता हूं। 'आप इस सम्पूर्ण जगत्को पी करके यहां साक्षात् बालकवेषमें क्यों विराजमान हैं ? यह सब बतानेकी कृपा करें। 'अनघ! यह सारा संसार आपके शरीरमें किसलिये स्थित हैं ? शत्रुदमन! आप कितने समयतक यहां इस रूपमें रहेंगे। 'देवेश्वर! कमलनयन! ब्राह्मणमें जो सहज जिज्ञासा होती हैं, उससे पे्ररित होकर मैं आपसे यह सब बातें यथाविधि विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूं। 'प्रभो! मैंने जो कुछ देखा हैं, यह अगाध और अचिन्त्य है। 'मेरे इस प्रकार पूछनेपर वे वक्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी देवाधिदेव श्रीभगवान् मुझे सान्त्वनादेते हुए इस प्रकार बोले।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें एक सौ अठासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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