महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 94-123

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अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 94-123 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंका ज्ञाता होनेपर भी तपस्यासे भली भांति चिन्तन करता ( ध्यान लगाता ) रहा, तो भी उस शिशुके विषयमें कुछ न जान सका। उसकी अंग-कान्ति अलसीके फूलकी भांति श्याम थी। उसका वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था। वह उस समय मुझे साक्षात् लक्ष्मीका निवासस्थानसा प्रतीत होता था। मुझे विस्मयमें पड़ा देख कमलके समान नेत्रवाले उस श्रीवत्सधारी कान्तिमान् बालकने मुझसे इस प्रकार श्रवणसुखद वचन कहा-'भृगुवंशी मार्कण्डेय! मैं तुम्हें जानता हूं। तुम बहुत थक गये हो और विश्राम चाहते हो। तुम्हारी जबतक इच्छा हो यहां बैठो। 'मुनिश्रेष्ठ! मैंने तुमपर कृपा की हैं। तुम मेरे शरीरके भीतर प्रवेश करके विश्राम करो। वहां तुम्हारे रहनेके लिये व्यवस्था की गयी हैं'। उस बालकके ऐसा कहनेपर उस समय मुझे अपने दीर्घजीवन और मानव-शरीर पर बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। तदनन्तर उस बालकने सहसा अपना मुख खोला और मैं दैवयोगसे परवशकी भांति उसमें प्रवेश कर गया। राजन्! उसमें प्रवेश करते ही मैं सहसा उस बालकके उदरमें जा पहुंचा। वहां मुझे समस्त राष्टों और नगरोंसे भरी हुई यह सारी पृथ्वी दिखायी दी। नरश्रेष्ठ! फिर तो मैं उस महात्मा बालकके उदरमें घूमने लगा। घूमते हुए मैंने वहां गंगा, सतलज, सीता, यमुना, कोसी, चम्बल, वेत्रवती, चिनाव, सरस्वती, सिन्धु, व्यास, गोदावरी, वस्वोकसारा, नलिनी, नर्मदा, ताम्रपर्णीं, वेणा, शुभदायिनी पुण्यतोया, सुवेणा, कृष्णवेणा, महानदी इरामा, वितस्ता, ( झेलम ), महानदी कावेरी, शोणभद्र, विशल्या तथा किम्पुना- इन सबको तथा इस पृथ्वीपर जा अन्य नदियां हैं, उनको भी देखा। शत्रुदमन! इसके बाद जलजन्तुओंसे भरे हुए अगाध जलके भण्डार परम उत्तम रत्नाकर समुद्रको भी देखा। वहां मुझे चन्द्रमा और सूर्यसे सुशोभित आकाशमण्डल दिखायी दिया, जो अनन्त तेजसे प्रज्वलित तथा अग्नि एवं सूर्यके समान देदीप्यमान था। राजन्! वहांकी भूमि विविध काननोंसे सुशोभित, पर्वत, वन और द्वीपोंसे उपलक्षित तथा सैकड़ों सरिताओंसे संयुक्त दिखायी देती थी। ब्राह्मणलोग नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् यज्ञपुरूषकी आराधना करते थे। नरेश्वर! क्षत्रिय राजा सब वर्णोंकी प्रजाका अनुरंजन करते-सबको सुखी और प्रसन्न रखते थे। वैश्य न्यायपूर्वक खेतीका काम और व्यापार करते थे। शूद्र तीनों द्विजातियोंकी सेवा-शुश्रूषामें लगे रहते थे। राजन्! यह सब देखते हुए जब मैं उस महात्मा बालके उदरमें भ्रमण करता आगे बढ़ा, तब हिमवान्, हेमकूट, निषेध, रजतयुक्त श्वेतगिरि, गन्धमादन, मन्द्रराचल, महागिरि नील, सुवर्णमय पर्वत मेरू, महेन्द्र, उत्तम विन्ध्यगिरि, मलय तथा पारियात्र पर्वत देखे। ये तथा और भी बहुतसे पर्वत मुझे उस बालकके उदरमें दिखायी दिये। ये सब-के-सब नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित थे। राजन्! वहां घूमते हुए मैंने सिंह, व्याघ्र और वाराह आदि पशु भी देखे। पृथ्वीपते! भूमण्डलमें जितने प्राणी हैं, उन सबको देखते हुए मैं उस समय उस बालकके उदरमें विचरता रहा। नरश्रेष्ठ! उस शिशुके उदरमें प्रविष्ट हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भ्रमण करते हुए मुझे इन्द्र पृथ्वीपते! साध्य, रूद्र, आदित्य, गुह्यक, पितर, सर्प, नाग, सुपर्ण, वसु, अश्विनीकुमार, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष तथा ऋषियोंका भी मैंने दर्शन किया। दैत्य-दानवसमूह, नाग, सिंहिकाके पुत्र ( राहु आदि ) तथा अन्य देवशत्रुओंको भी देखा। राजन्! इस लोकमें मैने जो कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखे थे, वे सब मुझे उस महात्माकी कुक्षिमें दृष्टिगोचर हुए। महाराज! मैं प्रतिदिन फलाहार करता और इस सम्पूर्ण जगत् में घूमता रहता हैं। उस बालकके शरीरके भीतर मैं सौ वर्षसे अधिक कालतक घूमता रहा, तो भी कभी उसके शरीरका अन्त नहीं दिखायी दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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