महाभारत वन पर्व अध्याय 189 श्लोक 25-50

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एकोननवत्यधिकशततम (189) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 25-50 का हिन्दी अनुवाद

विद्वन्! पापकर्म, लोभी, कृपण, अनार्य और अजितात्मा मनुष्य जिसे कभी नहीं पा सकते, वह महान् फल मुझे ही समझो। मैं ही शुद्ध अन्तःकरणवाले मानवोंको सुलभ होनेवाला योगसेवित मार्ग हूं। मूढ़ मनुष्योंके लिये मैं सर्वथा दुर्लभ हूं। महर्षें! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मका उत्थान होता हैं, तब-तब मैं अपने आपको प्रकट करता हूं जब हिंसाप्रेमी दैत्य श्रेष्ठ देवताओंके लिये अवध्य हो जाते हैं तथा भयानक राक्षस जब इस संसारमें उत्पन्न हो अत्याचार करने लगते हैं, तब मैं पुण्यात्मा पुरूषोंके घरोंपर मानव-शरीर में प्रविष्ट होकर प्रकट होता हूं और उन दैत्यों एवं राक्षसोंका सारा उपद्रव शांत कर देता हूं। मैं ही अपनी मायासे देवता, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणियोंकी सृष्टि करके समान आनेपर पुनः उनका संहार कर ड़ालता हूं। फिर सृष्टि-रचनाके लिये मैं अचिन्त्यस्वरूप धारण करता हूं तथा मर्यादाकी स्थापना एवं रक्षाके लिये मानव-शरीरसे अवतार लेता हूं। सत्ययुगमें मेरे शरीरका रंग श्वेत, त्रेतामें पीला, द्वापरमें लाल और कलियुगमें काला होता हैं। उस कलियुगमें तीन हिस्सा अधर्म और एक ही हिस्सा धर्म करता है। प्रलयकाल आनेपर मैं ही अत्यन्त दारूण कालरूप होकर अकेला ही सम्पूर्ण चराचर त्रिलोकीका नाश करता हूं। मैं तीनों लोकोंमें व्याप्त, सम्पूर्ण विश्वका आत्मा, सब लोगोंको सुख पहुंचनेवाला, सबकी उत्पतिका कारण, सर्वव्यापी, अनन्त, इन्द्रियोंका नियन्ता और महान् विक्रमशाली हूं। ब्राह्मन्! यह जो सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाला और सबको उद्योगशील बनानेवाला अव्यक्त कालचक्र हैं, इसका संचालन केवल मैं ही करता हूं। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार मेरा स्वरूपभूत आत्मा ही सर्वत्र सब प्राणियोंके भीतर भलीभांति स्थित हैं। विप्रवर! इतनेपर भी मुझे कोई जानता नहीं हैं। समस्त जगत् में भक्त पुरूष सब प्रकारसे मेरी आराधना करते हैं। तुमने मेरे निकट आकर जो कुछ भी क्लेश उठाया हैं, ब्राह्मन्! वह सब तुम्हारे भावी कल्याण और सुखका साधक हैं। अनघ! लोकमें तुमने जो कोई भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखा हैं, उसके रूपमें सर्वथा मेरा भूत-भावन आत्माही प्रकट हुआ है। सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्मा मेरा आधा अंग हैं। ब्रह्मर्षें! मैं शंकर, चक्र और गदा धारण करनेवाला विश्वात्मा नारायण हूं, सहस्र युगके अन्तमें जो प्रलय होता है वह जबतक रहता हैं, तबतक सब प्राणियोंको ( महानिद्रारूपमायासे ) मोहित करके मैं ( जलमें ) शयन करता हूं। मुनिश्रेष्ठ! यद्यपि तबतक यदा इसी प्रकार बालकरूप धारण करके यहां रहता हूं। विप्रशिरोमणे! तुम ब्रह्मार्षियोंद्वारा पूजित हो। मैंने ही ब्रह्मारूपसे तुम्हारे उपर बार-बार संतुष्ट हो तुम्हें अभीष्ट वर प्रदान किया है। मैंने समझ लिया था कि तुम सम्पूर्ण चराचर जगत् को नष्ट तथा एकार्णवमें निमग्न हुआ देखकर व्याकूल हो रहे हो। इसीलिये तुम्हें पुनः जगत् का दर्शन कराया हैं । ब्रह्मर्षें! जब तुम मेरे शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए थे और समस्त संसारको देखकर विस्मय-विमुग्ध हो फिर सचेत नहीं हो पा रहे थे, तब मैंने तुरंत मुखसे बाहर निकाल दिया था। ब्रहमर्षे! इस प्रकार मैंने तुम्हें अपने स्वरूपका उपदेश किया हैं, जिसका जानना देवता और असुरोंके लिये भी कठिन है। जबतक महातपस्वी भगवान् ब्रह्माका जागरण न हो, तबतक तुम श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सुखसे विचरते रहो। द्विजश्रेष्ठ! सर्वलोकपितामह ब्रह्माके जागनेपर मैं उनसे एकीभूत हो समस्त शरीरोंकी सृष्टि करूंगा। आकाश, पृथ्वी, अग्नि, वायु और जलका तथा इस संसारमें जो अन्य चराचर वस्तुएं अवशिष्ट हैं, उन सबका निर्माण करूंगा। मार्कण्डेयजी कहते हैं-तात युधिष्ठिर! ऐसा कहकर वे परम अद्भूत देवता भगवान् बालमुकुन्द अन्तर्धान हो गये। उनके अन्तर्धान होते ही मैंने देखा कि यह नाना प्रकारकी विचित्र प्रजा ज्यों-की-ज्यों उत्पन्न हो गयी हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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