महाभारत वन पर्व अध्याय 192 श्लोक 39-50

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द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 39-50 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर एक दिन महाराज शल शिकार खेलनेके लिये वनको गये। वहां उन्होंने एक हिंसक पशुको सामने पाकर रथके द्वारा ही उसका पीछा किया और सारथिसे कहा- 'शीघ्र मुझे मृगके निकट पहुंचाओं'। उनके ऐसा कहनेपर सारथि बोला- 'महाराज! आप इस पशुको पकड़नेका आग्रह न करें। यह आपकी पकड़में नहीं आ सकता। यदि आपके रथमें दोनों वाक्य घोड़े जुते होते, तब आप इसे पकड़ लेते।' यह सुनकर राजाने सूतसे पूछा-'सारथे! बताओ, वाम्य घोड़े कौन हैं, अन्यथा मैं तुम्हें अभी मार डालूंगा।' राजाके ऐसा कहनेपर सारथि भयसे कांप उठा। उधर घोड़ोंका परिचय देनेपर उसे वामदेव ऋषिके शापका भी डर था। अतः उसने राजासे कुछ नहीं कहा। तब राजाने पुनः तलवार उठाकर कहा- 'अरे! शीघ्र बता, नही तो तुझे अभी मार डालूंगा।' तब उसने राजाके भयसे त्रस्त होकर कहा- 'महाराज! वामदेव मुनिके पास दो घोड़े हैं जिन्हें 'वाम्य' कहते हैं। वे मनके समान वेगशाली हैं'। 'सारथिके ऐसा कहनेपर राजाने उसे आज्ञा दी, चलो वामदेवके आश्रमपर।' वामदेवके आश्रमपर पहुंचकर राजाने उन महर्षिसे कहा- 'भगवन्! मेरे बाणोंसे घायल हुआ हिंसक पशु भागा जा रहा हैं। आप अपने वाम्य अश्व मुझे देनेकी कृपा करें।' तब महर्षिने कहा-'मैं तुम्हें वाम्य अश्व दिये देता हूं। परंतु जब तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जाय, तब तुम शीघ्र ही ये दोनो अश्व मुझे ही लौटा देना।' राजाने दोनों अश्व पाकर ऋषिकी आज्ञा ले वहांसे प्रस्थान किया। वामी घोड़ोसे जुते हुए रथके द्वारा हिंसक पशुका पीछा करते हुए वे सारथिसे बोले- 'सूत! ये दोनों अश्वरत्न ब्राह्मणोंके पास रहने योग्य नहीं हैं।' ऐसा कहकर राजा हिंसक पशुको साथ ले अपनी राजधानीको चल दिये। वहां पहुंचकर उन्होंने उन दोनों अश्वोंको अन्तःपुरमें बांध दिया। उधर वामदेव मुनि मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे- 'अहो! वह तरूण राजकुमार मेरे अच्छे घोड़ोको लेकर मौज कर रहा हैं, उन्हें लौटानेका नाम ही नहीं लेता हैं। यह तो बड़े कष्टकी बात है!'। 'मन-ही-मन सोच-विचार करते हुए जब एक मास पूरा होगया, तब वे अपने शिष्यसे बोले- 'आत्रेय! जाकर राजासे कहोकि यदि काम पूरा हो गया हो तो गुरूजीके दोनों वाम्य अश्व लौटा दीजिये।' शिष्यने जाकर राजासे यही बात दुहरायी। तब राजाने उसे उत्तर देते हुए कहा-'यह सवारी राजाओंके योग्य हैं। ब्राह्मणोंको ऐसे रत्न रखनेका अधिकार नहीं हैं। भला, ब्राह्मणोंको घोड़े लेकर क्या करना हैं ? अब आप सकुशल पधारिये'। 'शिष्यने लौटकर ये सारी बातें उपाध्यायसे कहीं। वह अप्रिय वचन सुनकर वामदेव मन-ही-मन क्रोधसे जल उठे और स्वयं ही उस राजाके पास जाकर उन्हें घोड़े लौटा देनेके लिये कहा। परंतु राजाने वे घोड़े नहीं दिये'। 'तब वामदेवने कहा-राजन्! मेरे वाक्य अश्वोंको अब मुझे लौटा दो। निश्चय ही उन घोड़ोद्वारा तुम्हारा असाध्य कार्य पूरा हो गया हैं। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी असत्यवादिताके कारण राजा वरूण तुम्हें अपने भयंकर पाशोंसे बांध ले। राजा बोले-वामदेवजी! ये दो अच्छे स्वभावके सीखे-सिखाये हष्ट-पुष्ट बैल हैं, जो गाड़ी खींच सकते हैं, ये ही ब्राह्मणोंके लिये उचित वाहन हो सकते हैं। अतः महर्षें! इन्हींको गाड़ीमें जोतकर आप जहां चाहें जायं। आप-जैसे महात्माका भार तो वेद-मंत्र ही वहन करते हैं। वामदेवने कहा-राजन्! इसमें संदेह नहीं कि हम-जैसे लोगोंके लिये वेदके मंत्र ही वाहनका काम देते हैं। परंतु वे परलोकमें ही उपलब्ध होते हैं। इस लोकमें तो हम-जैसे लोगोंके तथा दूसरोंके लिये भी ये अश्व ही वाहन होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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