महाभारत वन पर्व अध्याय 192 श्लोक 51-63

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द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद

राजाने कहा-ब्रह्मन्! तब चार गधे, अच्छी जातिकी खच्चरियां या वायुके समान वेगशाली दूसरे घोड़े आपकी सवारीके लिये प्रस्तुत हो सकते हैं। इन्हीं वाहनोंद्वारा आप यात्रा करें। यह वाहन, जिसे आप मांगने आये हैं, क्षत्रिय नरेशके ही योग्य हैं। इसलिये आप यह समझ लें कि ये वाम्य अश्व मेरे ही हैं, आपके नहीं हैं। वामदेव बोले-राजन्! तुम ब्राह्मणोंके इस धनको हड़पकर जो अपने उपयोगमें लाना चाहते हो, यह बड़ा भयंकर कर्म कहा गया हैं। यदि मेरे घोड़े वापस न दोगे तो मेरी आज्ञा पाकर विकराल रूपधारी तथा लौह-शरीरवाले अत्यन्त भयंकर चार बड़े-बड़े राक्षस हाथोंमें तीखे त्रिशूल लिये तुम्हारे वधकी इच्छासे टूट पड़ेंगे और तुम्हारे शरीरके चार टुकड़े करके उठा ले जायंगे। राजाने कहा-वामदेवजी! आप ब्राह्मण हैं तो भी मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा मुझे मारनेको उद्यत हैं, इसका पता हमारे जिन सेवकोंको चल गया हैं, वे मेरी आज्ञा पाते ही हाथोंमें तीखे त्रिशूल तथा तलवार लेकर शिष्योंसहित आपको पहले ही यहां मार गिरावेंगे। वामदेव बोले-राजन्! तुमने जब ये मेरे दोनों घोड़े लिये थे, उस समय यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं इन्हें पुनः लौटा दूंगा। ऐसी दशामें यदि आपने आपको तुम जीवित रखना चाहते हो, तो मेरे दोनों वाम्यसंज्ञक घोड़े वापस दे दो। राजा बोले-ब्रह्मन्! ( ये घोड़े शिकारके उपयोग-में आने योग्य हैं और ) ब्राह्मणोंके लिये शिकार खेलनेकी विधि नहीं हैं। यद्यपि आप मिथ्यावादी हैं, तो भी मैं आपको दण्ड नहीं दूंगा और आजसे आपके सारे आदेशोंका पालन करूंगा, जिससे मुझे पुण्यलोककी प्राप्ति हो ( परंतु ये घोड़े आपको नहीं मिल सकते )। वामदेवने कहा-राजन्! मन, वाणी अथवा क्रिया द्वारा कोई भी अनुशासन या दण्ड ब्राह्मणोंपर लागू नहीं हो सकता। जो इस प्रकार जानकर कष्टसहनपूर्वक ब्राह्मणकी सेवा करता हैं; वह उस ब्राह्मण-सेवारूप कर्मसे ही श्रेष्ठ होता और जीवित रहता हैं। मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन्! वामदेवकी यह बात पूर्ण होते ही विकराल रूपधारी चार राक्षस वहां प्रकट हो गये। उनके हाथमें त्रिशूल थे। जब वे राजापर चोट करने लगे, तब राजाने उच्च स्वरसे यह बात कही- 'यदि ये इक्ष्वाकुवंशके लोग तथा मेरे आज्ञापालक प्रजावर्गके मनुष्य भी मेर त्याग कर दें, तो भी मैं वामदेवके इन वाम्य संज्ञक घोड़ोको कदापि नहीं दूंगा; क्योंकि इनके-जैसे लोग धर्मात्मा नहीं होते हैं'। ऐसा कहते ही राजा शल उन राक्षसोंसे मारे जाकर तुरंत धराशायी हो गये। इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंको जब यह मालूम हुआ कि राजा मार गिराये गये, तब उन्होंने उनके छोटे भाई दलका राज्याभिषेक कर दिया। तब पुनः उस राज्यमें जाकर विप्रवर वामदेवने राजा दलसे यह बात कही-'महाराज! ब्राह्मणोंकी वस्तु उन्हें दे दी जाय, यह बात सभी धर्मोंमें देखी गयी हैं। 'नरेन्द्र! यदि तुम अधर्मसे डरते हो तो मुझे अभी शीघ्रतापूर्वक मेरे वाम्य अश्वोंको लौटा दो।' वामदेवकी यह बात सुनकर राजाने रोषपूर्वक अपने सारथिसे कहा-'सूत! एक अद्भूत बाण ले आओ, जो विषयमें बुझकर रखा गया हो। जिससे घायल होकर यह वामदेव धरतीपर लोट जाय। इसे कुत्ते नोच-नोचकर खायं और यह पृथ्वीपर पड़ा-पड़ा पीड़ासे छटपटाता रहे'। वामदेवने कहा-नरेन्द्र! मैं जानता हूं, तुम्हारी रानीके गर्भसे श्येनजित् नामक एक पुत्र पैदा हुआ हैं, जो तुम्हें बहुत प्रिय है और जिसकी अवस्था दस वर्षकी हो गयी है। तुम मेरी आज्ञासे प्रेरित होकर इन भयंकर बाणोंद्वारा अपनी उसी पुत्रका शीघ्र वध करोंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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