महाभारत वन पर्व अध्याय 208 श्लोक 1-15
अष्टाधिकद्विशततम (208) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व )
मार्कण्डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर । तदनन्तर धर्म व्याध ने कौशिक ब्राह्मण से कहा-‘मैं जो यह मांस बेचने का व्यवसाय कर रहा हूं, वास्तव में यह अत्यन्त घोर कर्म है, इसमें संशय नहीं है । ‘किंतु ब्रह्मन् । दैव बलवान् है । पूर्व जन्म में किये हुए कर्म का ही नाम दैव है। उससे पार पाना बहुत कठिन है। यह जो कर्म दोष जनित व्याध के घर जन्म हुआ है, यह मेरे पूर्व ज्न्म में किये हुए पाप का फल है। ब्रह्मन् । मैं इस दोष के निवारण के लिये प्रयत्नशील हूं । ‘क्योंकि विधाता के द्वारा पहले ही जीव की मृत्यु निशिचत की जाती है; किंतु घातक (कसाई अथवा व्याध ) उसमें निमित्त बन जाता है अर्थात् जो स्वेच्छा से ज्ञान पूर्वक जीव हिंसा करता है, वह घातक व्यर्थ ही निमित्त बनकर दोष का भागी होता है । ‘द्विज श्रेष्ठ । इस कार्य में हम निमित्तमात्र हैं । ब्रह्मन् । मैं जिन मारे गये प्राणियों का मांस बेचता हूं, उनके जीते-जी यदि उनका सदुपयोग किया जाता तो बड़ा धर्म होता। मांस-भक्षण में तो धर्म का नाम भी नहीं है (उलटे महान् अधर्म होता है ) देवता, अतिथि, भरणीय कुटुम्बीजन और पितरों का पूजन ( आदर-सत्कार ) अवश्य धर्म है ।‘ओषधियां, अन्न, तृण, लता, पशु, मृग और पक्षी आदि सभी वस्तुएं सम्पूर्ण प्राणियों के अनादि काल से उपयोग में आती रहती हैं-ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है । ‘द्विज श्रेष्ठ । उशीनर के पुत्र क्षमाशील (और दयालु) राजा शिबि ने (एक भुखे बाज को कबूतर के बदले ) अपने शरीर का मांस अर्पित कर दिया था और उसी के प्रसाद से उन्हें परम दुर्लभ स्वर्ग लोक की प्राप्ति हुई थी । ‘विप्रवर । मैं अपना स्वधर्म समझकर यह धंधा नहीं छोड़ रहा हूं । पहले से मेरे पूर्वज यही करते आये है, ऐसा समझकर मैं इसी कर्म से जीवन निर्वाह करता हूं । ‘ब्रह्मन् । अपने कर्म का परित्याग करने वाले यहां अधर्म की प्राप्ति देखी जाती है। जो अपने कर्म में तत्पर हैं, उसी का बर्ताव धर्मपूर्ण है, ऐसा सिद्धान्त है ।‘पहले का किया हुआ कर्म देहधारी मनुष्यों को नही छोड़ता है। बहुधा कर्म का निर्णय करते समय विधाता ने इसी विधि को अपने सामने रक्खा है । ‘जो क्रूर कर्म में लगा हुआ है, उसे सदा यह सोचते रहना चाहिये कि ‘मैं शुभ कर्म करुं और किस प्रकार इस निन्दित कर्म से छुटकारा पाऊं । ‘बार-बार ऐसा करने उस घोर कर्म से छूटने के विषय में कोई निशिचत उपाय प्राप्त हो जाता है । द्विज श्रेष्ठ । मैं दान, सत्य भाषण, गुरु सेवा, ब्राह्मण पूजन तथा धर्मपाल में सदा तत्पर रहकर अभिमान और अतिवाद से दूर रहता हैं । ‘कुछ लोग खेती को उत्तम मानते हैं, परंतु उसमें भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। हल चलाने वाले मनुष्य धरती के भीतर श्यन करने वाले बहुत से प्राणियों की हत्या कर डालते हैं। इनके सिवा और भी बहुत से जीवों का वध वे करते रहते हैं। इस विषयक में आप क्या समझते हैं । ‘द्विज श्रेष्ठ । धान आदि जितने अन्न के बीज हैं, वे सब-के-सब जीव ही हैं; अत: इस विषयक में आप क्या समझते हैं ।
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