महाभारत वन पर्व अध्याय 229 श्लोक 1-16

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एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम (229) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
स्‍कन्‍द का इन्‍द्र के साथ वार्तालाप, देव सेनापति के पद पर अभिषेक तथा देव सेना के साथ उनका विवाह

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं- राजन् । स्‍कन्‍द सोने का कवच, सोने की माला और सोने की कलंगी से सुशोभित मुकुट धारण किये ( सुन्‍दर आसन पर ) बैठे थे। उनके नेत्रों से सुवर्ण की-सी ज्‍योति छिटक रही थी और उनके शरीर से माहान् तेज: पुज्ज प्रकट हो रहा था । उन्‍होंने लाल रंग के वस्‍त्र से अपने अग्ड़ों को आच्‍छादित कर रखा था । उनके दांत बड़े तीखे थे और उनकी आकृति मन को लुभा लेने वाली थी । वे समस्‍त शुभ लक्षणों से सम्‍पन्न तथा तीनों लोकों के लिये अत्‍यन्‍त प्रिय थे । तदनन्‍तर वर देने में समर्थ, शौर्य-सम्‍पन्न, युवा अवस्‍था से सुशोभित तथा सुन्‍दर कुण्‍डलों से अलंकृत कुमार कार्तिकेय का कमल के समान कान्तिवाली मूर्ति मती शोभा ने स्‍वयं ही सेवन किया । मूर्तिमती शोभा से सेवित हो वहां बैठे हुए महा यशस्‍वी सुन्‍दर कुमार को उस समय सब प्राणी पूर्णमासी के चन्‍द्रमा की भांति देखते थे । महामना ब्राह्मणों ने महाबली स्‍कन्‍द की पूजा की और सब महर्षियों ने वहां आकर उनका इस प्रकार स्‍तवन किया । ऋषि बोले – हिरण्‍यगर्भ। तुम्‍हारा कल्‍याण हो । तुम समस्‍त जगत् के लिये कल्‍याणकारी बनो। तुम्‍हारे पैदा हुए अभी छ: रातें ही बीती होंगी। इतने में ही तुमने समस्‍त लोकों को अपने वश में कर लिया है । सुर श्रेष्‍ठ । फिर तुम्‍हीं ने इन सब लोकों को अभय दान दिया है। अत: आज से तुम इन्‍द्र होकर रहो और तीनों लोकों के भय का निवारण करो । स्‍कन्‍द बोले-तपोधनो। इन्‍द्र इस पद पर रहकर सम्‍पूर्ण लोकों के लिये क्‍या करते हैं तथा वे देवेश्वर सदा समस्‍त देवताओं की किस प्रकार रक्षा करते हैं । ऋषि बोले-देवराज इन्‍द्र संतुष्‍ट होने पर सम्‍पूर्ण प्राणियों को बल, तेज, संतान और सुख की प्राप्ति कराते हैं तथा उनकी समस्‍त कामनाएं पूर्ण करते हैं । वे दुष्‍टों का संहार करते और उत्तम व्रत का पालन करने वाले सत्‍पुरुषों को जीवन दान देते हैं। बल नामक दैत्‍य का विनाश करने वाले इन्‍द्र सभी प्राणियों को आवश्‍यक कार्यों में लगने का आदेश देते है । सूर्य के अभाव में स्‍वयं ही सूर्य होते हैं और चन्‍द्रमा के न रहने पर स्‍वयं ही चन्‍द्रमा बनकर उनका कार्य सम्‍पादन करते हैं। आवश्‍यकता पड़ने पर वे ही अग्रि, वायु, पृथ्‍वी और जल का स्‍वरुप धारण कर लेते हैं । यह सब इन्‍द्र का कार्य है। इन्‍द्र में अपरिमित बल होता है। वीर । तुम भी श्रेष्‍ठ बलवान् हो। अत: तुम्‍हीं हमारे इन्‍द्र हो जाओ । हम सबको सुख पहुंचाओ । सज्जनशिरोमणे । तुम इस पद के सर्वथा योग्‍य हो। अत: आज ही इस पद पर अपना अभिषेक करा लो । स्‍कन्‍द बोले-इन्‍द्र देव । आप ही स्‍वस्‍थचित्त होकर तीनों लोकों का शासन कीजिये और विजया प्राप्ति के कार्य में संलग्र रहिये। मैं तो आपका सेवक हूं। मुझे इन्‍द्र बनने की इच्‍छा नहीं है । इन्‍द्र ने कहा-वीर। तुम्‍हारा बल अभ्‍दुत है, अत: तुम्‍हीं देव-शत्रुओं का संहार करे । वीरवर । मैं तुम्‍हारे सामने पराजित होकर बलहीन सिद्ध हो गया हूं। अत: तुम्‍हारे पराक्रम से चकित होकर लोग मेरी अवहेलना करेंगे। यदि मैं इन्‍द्र पद पर स्थित रहूं, तो भी सब लोग मेरा उपहास करेंगे और आलस्‍य छोड़कर हम दोनों में परस्‍पर फूट डालने का प्रयत्न करेंगे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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