महाभारत वन पर्व अध्याय 230 श्लोक 1-14

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त्रिंशदधिकद्विशततम (230) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
कृतिकाओं को नक्षत्र मण्‍डल में स्‍थान की प्राप्ति तथा मनुष्‍यों को कष्‍ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् । कुमार महासेन को श्री सम्‍पन्न और देवताओं का सेनापति हुआ देख सप्‍त र्षियों में से छ: की पत्नियां उनके पास आयी । वे धर्मपरायणा तथा महान् पातिव्रतय का पालन करने वाली थी, तो भी ऋषियों ने उन्‍हें त्‍याग दिया था । अत: उन्‍हो देव सेना के स्‍वामी भगवान स्‍कन्‍द के पास शीघ्रता पूर्वक आकर कहा । ‘बेटा। हमारे देवतुल्‍य पतियों ने अकारण रुष्‍ट होकर हमें त्‍याग दिया है, इसलिये ( हम ) पूण्‍य लोक से च्‍युत हो गयी हैं । ‘उन्‍हें किसी ने यह बता दिया है कि तुम हमारे गर्भ से उत्‍पन्न हुए हो, ( परंतु ऐसी बात नहीं है ) अत: हमारे सत्‍य कथन को सुनकर तुम इस संकट से हमारी रक्षा करो । ‘प्रभो । तुम्‍हारी कृपा से हमें अक्षय स्‍वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इसके सिवा हम तुम्‍हें अपना पुत्र भी बनाये रखना चाहती हैं । यह सब कार्य सम्‍पन्न करके तुम हम से उऋण हो जाओ । स्‍कन्‍द बोले-वन्‍दनीय सतियो । आप लोग मेरी माताएं हैं और मैं आप सबका पुत्र हूं। इसके सिवा यदि आप लोगों और कोई इच्‍छा हो, तो वह भी पूर्ण हो जायगी । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् । तदनन्‍तर इन्‍द्र को कुछ कहने के लिये उत्‍सुक देख स्‍कन्‍द ने पूछा- ‘क्‍या काम है, कहिये स्‍कन्‍द के इस प्रकार आदेश देने पर इन्‍द्र बोले । ‘रोहिणी की छोटी बहिन अभिजित् देवी स्‍पर्धा के कारण ज्‍येष्ठाता पाने की इच्‍छा से तपस्‍या करने के लिये वन में चली गयी है । ‘तुम्‍हारा कल्‍याण हो , आकाश से यह एक नक्षत्र च्‍युत हो गया है: ( इसकी पूर्ति कैसे हो ) इस प्रश्व को लेकर मैं किंकर्तव्‍यविमूढ हो गया हूं । स्‍कन्‍द । तुम ब्रह्मजी के साथ मिलकर इस उत्तम काल ( मुहूर्त या नक्षत्र ) की पूर्ति के उपाय का विचार करो । ‘अभिजित् का पतन होने से ब्रह्मजी ने धनिष्‍ठ से ही ( सत्‍य युग ) काल की गणना का क्रम निश्चित किया ( क्‍योंकि वही उस समय युगादि नक्षत्र था ) । इसके पूर्व रोहिणी को ही युगादि नक्षत्र माना जाता था ( क्‍योंकि उसी के प्रारम्‍भ काल में चन्‍द्रमा, सूर्य तथा गुरु का योग होता था) इस प्रकार नाक्षात्र मास की दिन-संख्‍या उन दिनों सम थी’ । इन्‍द्र के उपर्युक्त प्रस्‍ताव करने पर उनका आश्‍य समझकर छहों कृतिकाएं अभिजित् के स्‍थान की पूर्ति करने के लिये आकाश में चली गयीं। वह अग्रि देवता सम्‍बन्‍धी कृति का नक्षत्र सात सिरों की आकृति में प्रकाशित हो रहा है । गरुड़ जातीय विन ताने स्‍कन्‍द से कहा ‘बेटा। तुम मेरे पिण्‍ड दाता पुत्र हो। मैं सदा तुम्‍हारे साथ रहना चाहती हूं । रुकन्‍द ने कहा – एवमस्‍तु ( ऐसा ही हो ), मा । तुम्‍हें नमस्‍कार है । तुम मेरे ऊपर पुत्रोचित स्‍नेह रखकर कर्तव्‍य का आदेश देती रहो। देवि । तुम यहां सदा अपनी पुत्र वधू देव सेना द्वारा सम्‍मानित होकर रहोगी । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् । तदनन्‍तर समस्‍त मातृगणों ने आकर स्‍कन्‍द से कहा- बेटा। विद्वानों ने हमें सम्‍पूर्ण लोकों की माताएं कहकर हमारी स्‍तुति की है । अब हम तुम्‍हारी माता होना चाहती हैं। तुम मातृ भाव से हमारा पूजन करो ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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