महाभारत वन पर्व अध्याय 231 श्लोक 1-21

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एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमास्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
स्‍कन्‍दद्वारा स्‍वाहादेवी का सत्‍कार, रूद्र देव के साथ स्‍कन्‍द और देवताओं की भद्रवट-यात्रा, देवासुर-संग्राम, महिषासुर-वध तथा स्‍कन्‍दकी प्रशंसा

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं- युधिष्‍ठर ! जब स्‍कन्‍द ने इस प्रकार मातृगणों का यह प्रिय मनोरथ पूर्ण किया, तब स्‍वाहा ने आकर उनसे कहा-‘तुम मेरे औरस पुत्र हो । ‘अत: मैं चाहती हूँ कि तुम मेरे परम दुर्लभ प्रीति प्रदान करो ।’ तब स्‍कन्‍द ने पूछा- ‘मां तुम कैसी प्रीति पानेकी अभिलाषा रखती हो ?’स्‍वाहा बोली- महाबाहो ! मैं प्रजा‍पति दक्ष की प्रिय पुत्री हूँ, मेरा नाम स्‍वाहा है मैं बचपन से ही सदा अग्निदेव के प्रति अनुराग रखती आयी हूँ । पुत्र ! परन्‍तु अग्निदेव को इस बात‍का अच्छी तर पता नहीं है कि मैं उन्‍हें चाहती हूँ । बेटा ! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि मैं नित्‍य निरन्‍तर अग्निदेव के साथ ही निवास करूं । स्‍कन्‍द बोले-देवी ! आजसे सन्‍मार्गपर चलनेवाले सदाचारी धर्मात्‍मा मनुष्‍य देवताओं तथा पितरोंके लिये हव्‍य और कव्‍यके रूपमें उठाकर ब्राह्माणोंद्वारा उच्‍चारित वेदमन्‍त्रोंके साथ अग्निमें जो कुछ आहुति देंगे, वह सब स्‍वाहाका नाम लेकर ही अर्पण करेंगे । शोभने ! इस प्रकार तुम्‍हारे साथ निरन्‍तर अग्निदेवका निवास बना रहेगा । मार्कण्‍डेयजी कहते है-युधिष्‍ठर ! स्‍कन्‍दके इस प्रकार कहने और आदर देनेपर स्‍वाहा बहुत संतुष्‍ट हुई । अपने स्‍वामी अग्निदेवका संयोग पाकर स्‍कन्‍दका पूजन किया । तदनन्‍तर प्रजापति ब्रह्माजीने महासेनसे कहा-‘वत्‍स ! अब तुम अपने पिता त्रिपुरविनाशक महादेवजीसे मिलो । ‘भगवान रूद्रने अग्निमें और भगवती उमाने स्‍वाहामें प्रवेश करके समस्‍त लोकोंके हितके लिये तुम जैसे अपराजित वीरको उत्‍पन्‍न किया है । ‘महात्‍मा रूद्रने उमाके गर्भमें जिस वीर्यकी स्‍थापना की थी, उसका कुछ भाग इसी पर्वतपर गिर पड़ा था, जिससे मिज्जिका-मिज्जिक जोडे़की उत्‍पत्ति हुई । शेष शुक्रका कुछ अंश लोहित-सागरमें, कुछ सूर्यकी किरणोंमें,-कुछ पृथ्‍वीपर और कुछ वृक्षोंपर गिर पड़ा । इस प्रकार वह पांच भागोंमें विभक्‍त होकर गिरा था । उसीसे यह तुम्‍हारे विभिन्‍न आकृति वाले, मांस-भक्षी एवं भयंकर पार्षद प्रकट हुए हैं; जिन्‍हें मनीषी पुरूष ही जान पाते हैं’ । तब अपरिमित आत्‍मबलसे सम्‍पन्‍न एवं पितृभक्‍त कुमार महासेनने ‘एवमस्‍तु’ कहकर अपने पिता भगवान महेश्‍वरका पूजन किया । मार्कणडेयजी कहते है-राजन् ! धनार्थी पुरूषोंको आकके फूलोंसे उन पांचों की गणोंकी सेवा करनी चाहिेये । रोगोंकी शान्तिके लिये भी उन का पूजन करना उचित है ।। मिज्जिका-मिज्जिकका जोड़ा भी भगवान शंकरसे उत्‍पन्‍न हुआ है। अत: बालकोंके हितकी इच्‍छा रखनेवाले पुरूषोंको चाहिये कि वे सदा इस जोडेको नमस्‍कार करें । वृक्षोंपरसे गिरे हुए शुक्रसे’ वृद्धिका’ नामवाली स्त्रियां उत्‍पन्‍न हुई हैं, जो मनुष्‍यका मांस भक्षण करने वाली हैं । सन्‍तानकी इच्‍छा रखनेवाले लोगोंको इन देवियोंके आगे मस्‍तक झुकना चाहिये । इस प्रकार ये पिशाचोंके असंख्‍य गण बताये गये हैं । राजन् ! अब तुम मुझसे स्‍कन्‍दके घण्‍टे और पताकाकी उत्‍पत्तिका वृत्‍तान्‍त सुनो । इन्‍द्रके ऐरावत हाथीके उपयोगमें आनेवाले जो दो ‘वैजयन्‍ती’ नामसे विख्‍यात घण्‍टे थे, उन्‍हें बुद्धिमान इन्‍द्रने क्रमश: ले आकर स्‍वयं कुमार कार्तिकेयको अर्पण कर दिया । उनमेंसे एक घण्‍टा विशाखने ले लिया और दूसरा स्‍कन्‍दके पास रह गया । कार्तिकेय और विशाख दोनोंकी पताकायें लाल रंग की है। उस समय देवताओंने जो खिलौने दिये थे, उन्‍हींसे महाबली महासेन खेलते और मन बहलाते हैं । राजन् ! अद्भुत शोभासे सम्‍पन्‍न और कान्तिमान् कुमार कार्तिकेय उस समय उस स्‍वर्णमय शिखरपर पिशाचों और देवताओंके समूहसे भिड़कर बड़ी शोभा पा रहे थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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