महाभारत वन पर्व अध्याय 231 श्लोक 22-42
एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमास्या पर्व )
जैसे अंशुमाली सूर्यके उदयसे मनोहर कन्दरावाले मंदराचलकी शोभा होती है, उसी प्रकार वीरवर स्कन्दके निवाससे सुन्दर वनवाले उस श्वेतगिरि की शोभा बढ़ गयी थी । वहां कहीं फूलोंसे भरे हुए कल्पवृक्षके वन और कहीं कनेरके कानन सुशोभित होते थे । कहीं पारिजातके वन थे,तो कहीं जपा और अशोक के उपवन शोभा पाते थे । कहीं कदम्ब नामक वृक्षोके समूह लहलहा रहे थे, तो कहीं दिव्य मृगगण विचर रहे थे । सब ओर दिव्य पक्षियोंके समुदाय कलरव कर रहे थे । इन सबसे उस श्वेत पर्वतकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी । वहां सम्पूर्ण देवता तथा देवर्षिगण आकर विराजमान हो गये । क्षुब्ध महासागरकी गम्भीर गर्जनाके समान मेघों और दिव्य वाद्योंका तुमुल घोष सब ओर गूंजने लगा । ‘वहां दिव्य गन्धर्व और अप्सराएं नृत्य करने लगीं । हर्षमें भरे हुए प्रणियोंका महान् कोलाहल सुनायी देने लगा । इस प्रकार इन्द्रसहित सम्पूर्ण जगत् बड़ी प्रसन्नताके साथ श्वेत पर्वतपर विराजमान कुमार कार्तिकेयका दर्शन करने लगा । उनके दर्शनसे किसीका जी नहीं भरता था । मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन् ! जब अग्निनन्दन भगवान स्कन्दका सेनापतिके पदपर अभिषेक हो गया, तब श्रीमान् भगवान शिव देवी पार्वतीके साथ सूर्यके समान रथ पर आरूढ़ हो प्रसन्नतापूर्वक भद्रवटकी ओर प्रस्थित हुए । उस समय इन्द्र आदि सब देवता उनके पीछे-पीछे चले । भगवान शिवके उस उत्तम रथमें एक हजार सिंह जुते हुए थे । साक्षात् काल उस रथका संचालन कर रहा था । उसकी प्रेरणासे वह शुभ्र रथ आकाशमें उड़ चला । मनोहर केशरोंसे सुशोभित वे सिंह चराचर प्रणियोंको भयभीत करते और दहाड़ते हुए आकाशमें इस प्रकार चलने लगे,मानों उसे पी जायेगे । उस रथपर भगवती उमाके साथ बैठे हुए भगवान शिव इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो इन्द्रधुनुषयुक्त मेघोंकी घटामें विद्युत् के साथ भगवान सूर्य प्रकाशित हो रहे हों । उनके आगे-आगे गुह्मकोंसहित नरवाहन धनाध्यक्ष भगवान कुबेर मनोहर पुष्पक विमानपर बैठकर जा रहे थे । देवताओंसहित इन्द्र भी ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो (भद्रवटको) जाते हुए वरदायक भगवान वृषभध्वजके पीछे-पीछे चल रहे थे । मालाधारी जृम्मकगण, यक्ष तथा राक्षसोंसे सुशोभित महायक्ष अमोघ भगवान शंकरके दाहिने भागमें रहकर चल रहा था । उसके दाहिने भागमें विचित्र प्रकारके युद्ध करनेवाले बहुत-से देवता वसुओं तथा रूद्रोंके साथ संगठित होकर चल रहे थे । मृत्युसहित यमराज अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके देवताओं के साथ यात्रा कर रहे थे ।उन्हें सैकडों भयानक रोगोंने मूतिर्मान् होकर चारों ओरसे घेर रक्खा था । यमराजके पीछे-पीछे भगवान शंकरका विजय नामक भयंकर त्रिशूल जा रहा था, जो तीन शिखरों से सुशोभित और तीक्ष्ण था । उस त्रिशूलको सिन्दूर आदि से भली-भॉंति सजाया गया था । जलके स्वामी भगवान वरूण हाथ में भयंकर पाश लिये उस त्रिशूलको सब ओरसे घेर कर धीरे-धीरे चल रहे थे । उनके साथ नाना प्रकारकी आकृति वाले जल जन्तु भी थे । विजयके पीछे भगवान रूद्रका पट्टिश नामक शस्त्र जा रहा था, जिसे गदा, मुसल और शक्ति आदि उत्तम आयुधोंने घेर रक्खा था । राजन् ! पट्टिशके पीछे भगवान रूद्रका अत्यन्त प्रभावपूर्ण छत्र जा रहा था और उसके पीछे महर्षियों द्वारा सेवित कमण्डलु यात्रा कर रहा था । कमण्डलुके दाहिने भागमें जाते हुए तेजस्वी दण्डकी बड़ी शोभा हो रही थी । उसके साथ भृगु और अंगिरा आदि महर्षि थे और देवता भी बार-बार उसका पूजन करते थे । इन सबके पीछे उज्ज्वल रथपर आरूढ़ हो रूद्रदेव यात्रा करते थे, जो अपने तेज से सम्पूर्ण देवताओं का हर्ष बढ़ा रहे थे ।
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