महाभारत वन पर्व अध्याय 231 श्लोक 88-107

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एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमास्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 88-107 का हिन्दी अनुवाद
स्‍कन्‍दद्वारा स्‍वाहादेवी का सत्‍कार, रूद्र देव के साथ स्‍कन्‍द और देवताओं की भद्रवट-यात्रा, देवासुर-संग्राम, महिषासुर-वध तथा स्‍कन्‍दकी प्रशंसा

जब क्रोधमें भरे हुए महिषासुरने सहसा भगवान रूद्रके रथपर आक्रमण किया, उस समय पृथ्‍वी और आकाशमें भारी कोलाहल मच गया और महर्षिगण भी घबरा गये । इधर विशालकाय दैत्‍य मेघोंके समान गम्‍भीर गर्जना करने लगे । उन्‍हें यह निश्‍चय हो गया कि ‘हमारी जीत होगी’ । उस अवस्‍थामें भी भगवान रूद्र नें युद्धमें महिषासुरको स्‍वयं नहीं मारा किंतु उस दुरात्‍मा दानवकी मृत्‍यु जिनके हाथोंसे होनेवाली थी, उन कुमार कार्तिकेयका स्‍मरण किया । भयानक महिषासुर रूद्रके रथको देखकर देवताओं को त्रास और दैत्‍योंको हर्ष प्रदान करता हुआ बार-बार सिंहनाद करने लगा । देवताओंके लिये वह घोर भयका अवसर उपस्थित था । इसी समय जगमगाते हुए सूर्यकी भॉंति कुमार महासेन क्रोधमें भरे हुए वहां आ पहुंचे । उन्‍होंनें अपने शरीरको लाल वस्‍त्रोंसे आच्‍छादित कर रक्‍खा था । उनके हार और आभूषण भी लाल रंगके ही थे । उनके घोडे का रंग भी लाल था । उन महाबाहु भगवान स्‍कन्‍दने सुवर्णमय कवच धारण किया था । वे सूर्यके समान तेजस्‍वी रथपर विराजमान थे । उनकी अंगकान्ति भी सुवर्ण के समान ही उद्भासित हो रही थी । उन्‍हें सहसा संग्राममें उपस्थित देख दैत्‍योंकी सेना रणभूमिसे भाग चली । राजेन्‍द्र । महाबली महासेनने महिषासुर पर एक प्रज्‍ज्‍वलित शक्ति चलायी, जो उसके शरीरको विदीर्ण करने वाली थी । कुमारके हाथ से छूटते ही उस शक्त्‍िाने महिषासुरके महान् मस्‍तकको काट गिराया । सिर कट जानेपर महिषासुर प्राणशून्‍य होकर पृथ्‍वीपर गिर पड़ा । उसके पर्वत सदृश विशाल मस्‍तकने गिरकर (उत्‍तर-पूर्व देशके) सोलह योजन लम्‍बे द्वारको बंद कर दिया । अत: वह देश सर्वसाधारणके लिये अगम्‍य हो गया । उत्‍तर कुरूके निवासी अब उस मार्ग से सुख पूर्वक आते-जाते हैं ।देवताओं और दानवों ने देखा, कुमार कार्तिकेय बार-बार शत्रुओंपर शक्त्‍िा का प्रहार करते हैं और वह सहस्‍त्रों युद्धाओको मारकर पुन: उनके हाथ में लौट आती है । परम बुद्धिमान महासेनने अपने बाणोंद्वारा अधिकांश दैत्‍योंको समाप्‍त कर दिया, बचे-खुचे भंयकर दैत्‍य भी भयभीत हो साहस खो चुके थे । स्‍कन्‍ददेवके दुर्धर्ष पार्षद उन सहस्‍त्रों दैत्‍योंको मारकर खा गये । उन सबने अत्‍यन्‍त हर्षमें भरकर दानवोंको खाते और उनके रक्‍त पीते हुए क्षणभरमें सारी रणभूमिको दानवोंसे खाली कर दिया । जैसे सूर्य अन्‍धकार मिटा देते हैं, आग वृक्षों को जला डालती है, और आकाश चारी वायु बादलोंको छिन्‍न–भिन्‍न कर देती है, वैसे ही कीर्ति शाली कुमार कार्तिकेयनें अपने पराक्रमद्वारा समस्‍त शत्रुओंको नष्‍ट करके उनपर विजय पायी । उस समय देवता लोग कृत्तिकानन्‍दन स्‍कन्‍ददेवकी स्‍तुति और पूजा करने लगे । कुमार स्‍कन्‍द अपने पिता महेश्‍वरको प्रणाम करके सब ओर किरणें बिखेरनेवाले अंशुमाली सूर्यकी भॉंति शोभा पाने लगे । शत्रुओंका नाश करके जब कुमार का‍र्तिकेय भगवान महेश्‍वर के पास पंहुचे, उस समय इन्‍द्रने उनको हृदयसे लगा लिया और इस प्रकार कहा-। ‘विजयी वीरोंमें श्रेष्‍ठ स्‍कन्‍द ! इस महिषासुरको ब्रह्माजीने वरदान दिया था, जिस के कारण उसके सामने सब देवता तिनकोंके समान हो गये थे । आज तुमने इसे मार गिराया है । महाबाहो ! यह देवतोओंके लिये बडा भारी कांटा था, जिसे तुमने निकाल फेंका है । यही नहीं, आज रणभूमिमें इस म‍‍हि‍षके समान पराक्रमी एक सौ देवद्रोही दानव और तुम्‍हारे हाथ से मारे गये हैं, पहले हमें बहुत कष्‍ट दे चुके हैं । तुम्‍हारे पार्षद भी सैकड़ों दानवों को खा गये हैं ।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १. रथ का वह अग्रभाग जहां जुआ बांधा जाता है, कूबर कहलाता है ग्राम्‍य भाषामें उसे ‘नकेला’ या ‘सबुनी’ कहते हैं ।

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