महाभारत वन पर्व अध्याय 231 श्लोक 65-87

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एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमास्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 65-87 का हिन्दी अनुवाद
स्‍कन्‍दद्वारा स्‍वाहादेवी का सत्‍कार, रूद्र देव के साथ स्‍कन्‍द और देवताओं की भद्रवट-यात्रा, देवासुर-संग्राम, महिषासुर-वध तथा स्‍कन्‍दकी प्रशंसा

बहुत-से युद्धा हाथी और घोडे़ काट डाले गये । असंख्‍य आयुध और बड़े-बडे़ रथ टूक-टूक कर दिये गये । इस प्रकार दानावोंद्वारा पीडि़त हुई देवताओंकी सेना युद्धसे विमुख हो गयी । [१] जैसे आग समूचे वनको जला देती है, उसी प्रकार असुरोंने देवताओंकी सेनामें भारी मारकाट मचा दी । बडे़-बडे़ वृक्षोंसे भरे हुए वनका अधिकाश भाग जल जाने पर उसकी जैसी दुरवस्‍था दिखाई देती है, उसी प्रकार दैत्‍योंकी अस्‍त्राग्निमें अधिकांश सैनिकोंके दग्‍ध हो जानेके कारण वह देवसेना धराशायी हो रही थी । उस महासमरमें असुरोंकी मार खाकर वे सब देवता भागते हुए कहीं कोई रक्षक नही पा रहे थे । किन्‍हींके सिर फट गये थे, तो किन्‍हींके सब अंगोंमें गहरे घाव हो गये थे । तदनन्‍तर बलासुरविनाशक देवराज इन्‍द्रने अपनी उस सेनाको दानवोंसे पीडित होकर भागती देख उसे आश्‍वासन देते हुए कहा- ‘शूरवीरो ! भय त्‍याग दो, इससे तुम्‍हारा मंगल होगा । हथियार उठाओ और पराक्रममें मन लगाओ । तुम्‍हें किसी प्रकार व्‍यथित नहीं होना चाहिये । इन भयंकर दिखाई देनेवाले दुराचारी दानवों को जीतो । तुम्‍हारा कल्‍याण हो । तुम सब लोग मेरे साथ इन महाकाय दैत्‍योंपर टूट पड़ो ।’ इन्‍द्रकी यह बात सुनकर देवताओं को बड़ी सान्‍त्‍वना मिली । उन्‍होंने इन्‍द्रको अपना आश्रय बनाकर दानवों के साथ पुन: युद्ध प्रारम्‍भ किया । तत्‍पश्‍चात् वे सभी देवता महाबली मरूदगण तथा वसुओं एवं महाभाग साध्‍यगण सहित युद्धभूमिमें आगे बढ़ने लगे । उन्‍होंने संग्राममें कुपित होकर दैत्‍योंकी सेनाओंके ऊपर जो अस्‍त्र-शस्‍त्र और बाण चलाये, वे उनके शरीरोंमें घुसकर प्रचुर मात्रामें रक्‍त पीने लगे । वे तीखे बाण उस समय दैत्‍योंके शरीरोंको विदीर्णकर रण-भूमिमें इस प्रकार गिरते दिखाई देते थे, मानों वृक्षों से सर्प गिर रहे हों । राजन् ! देवताओंके बाणों से विदीर्ण हुए वे दैत्‍योंके शरीर सब प्रकारसे छिन्‍त्र-भिन्‍त्र हुए बादलोंके समान धरतीपर गिरने लगे । तदनन्‍तर समस्‍त देवताओंने उस युद्धमें दानवसेनाको अपने विविध बाणोंके प्रहारसे भयभीत करके रणभूमिसे विमुख कर दिया । फिर तो उस समय हाथोंमें अस्‍त्र-शस्‍त्र उठाये सम्‍पूर्ण देवता हर्षमें भरकर कोलाहल करने लगे और अनेक प्रकारके विजय वाद्य एक साथ बज उठे । इस प्रकार देवताओं और दानवोंमें परस्‍पर अत्‍यन्‍त भंयकर युद्ध हो रहा था । रक्‍त और मांससे वहांकी भूमिपर कीचड़ जम गयी थी । फिर सहसा बाजी पलट गयी । देवलोककी पराजय दिखायी देने लगी । भंयकर दानव देवताओंको मारने लगे । उस समय दानवेन्‍द्रोंके भयंकर सिंहनाद सुनायी पड़ते थे । उसके रणवाद्यों तथा भेरियोंका गम्‍भीर घोष सब ओर गूंज उठा । इतनेहीमें दैत्‍योंकी भंयकर सेनासे महाबली दानव ‘महषि’ हाथोंमें एक विशाल पर्वत लिये निकला और देवताओंपर टूट पड़ा । राजन् ! बादलोंसे घिरे हुए सर्यकी भॉंति पर्वत उठाये हुए दानवको देखकर सब देवता भाग चले । परंतु महिषासुरने देवताओंका पीछा करके उनके ऊपर वह पहाड़ पटक दिया । युधिष्‍ठर ! उस भयानक पर्वतके गिरनेसे देवसेनाके दश हजार योद्धा कुचलकर धरतीपर गिर पड़े । तदनन्‍तर जैसे सिंह छोटे मृगोंको डराता हुआ उनपर टूट पड़ता है, उसी प्रकार महिषासुर ने अपने दानव सैनकों के साथ रणभूमिमें समस्‍त देवताओंको भयभीत करते हुए उनपर शीघ्र ही प्रबल आक्रमण किया । उस महिषासुरको आते देख इन्‍द्र आदि सब देवता भयभीत हो अपने अस्‍त्र-श्‍स्‍त्र और ध्‍वजा फेंककर युद्ध भूमिसे भागने लगे । तब क्रोधमें भरा हुआ महिषासुर तुरंत ही भगवान रूद्रके रथकी ओर दौड़ा और पास जाकर उनके रथका कूबर पकड लिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. [३३] म० भा० (द्वितीय खण्‍ड) ५७

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