महाभारत वन पर्व अध्याय 254 श्लोक 1-25

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चतुष्‍पच्‍चाशदधिकद्विशततम (254) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुष्‍पच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण के द्वारा सारी पृथ्‍वी पर दिग्विजय और हस्तिनापुर में उसका सत्‍कार

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय ! तदनन्‍तर महाधनुर्धर कर्णने अपनी विशाल सेनाके साथ जाकर राजा द्रुपदके रमणीय नगरको चारो ओरसे घेर लिया ।फिर महान् युद्धकरके उसने वीर द्रुपदको अपने वशमें कर लिया और उन्‍हें सोना, चांदी, भति-भॉंति के रत्‍न एवं कर देनेके लिये विवश किया । नृषश्रेष्‍ठ महाराज जनमेजय ! इस प्रकार द्रुपदको जीतकर कर्णने उनके अनुयायी नरेशोंको भी अपने अधीन कर लिया और उन सबसे भी कर वसूल किया । तत्‍पश्‍चात् उसने उत्‍तर दिशामें जाकर वहॉं के राजाओंको अपने वशमें कर लिया । भगदत्‍तको जीतकर राधानन्‍दन कर्ण शत्रुओंसे युद्ध करता हुआ महान् पर्वत हिमालयपर आरूढ हुआ । वहॉंसे सब दिशाओंमें जाकर उसने समस्‍त राजाओंको अपने अधीन किया और हिमालय प्रदेशके समस्‍त भूपालोंको जीतकर उनसे कर लिया । तदनन्‍तर नेपालदेशमें जो राजा थे, उनपर भी विजय प्राप्‍त की, फिर हिमालय पर्वतसे उतरकर उसने पूर्व दिशाकी ओर धावा किया । अंग, वंग, कलिंग, शुडि़क, मिथिला, मगध और कर्क खण्‍ड- इन सब देशोंको अपने राज्‍यमें मिलाकर कर्णने आवशीर,योध्‍य और अहिक्षत्र देशको भी जीत लिया । इस प्रकार पूर्व दिशापर विजय प्राप्‍त करके उसने वत्‍सभूमि- में पदार्पण किया । वत्‍सभूमि को जीतकर कर्णने केवला, मृत्तिकाबती, मोहन पत्‍तन, त्रिपुरी तथा कासला-इन सब देशोको अपने अधिकार में किया और सबसे कर लेकर ( दक्षिण दिशाकी ओर ) प्रस्‍थान किया । दक्षिण दिशामें पहुँचकर कर्णनें बड़े–बड़े महारथियों को जीता । दाक्षिणात्‍योंमें रूक्‍मीके साथ कर्णने युद्ध किया । रूक्‍मीने पहले तो बड़ा भंयकर युद्ध किया, फिर उसने सूतपुत्र कर्णसे कहा ।‘राजेन्‍द्र ! मैं तुम्‍हारे बल और पराक्रमसे बहुत प्रसन्‍त्र हूँ । अत: तुम्‍हारे कार्यमें विघ्‍न नहीं डालूँगा । थोडी देर युद्ध करके मैंने केवल क्षत्रिय धर्मका पालन किया है । तुम जितना सोना ले जाना चाहो, उतना मैं प्रसन्‍त्रतापूर्वक दे रहा हूँ ।’ इस प्रकार रूक्‍मीसे मिलकर कर्णने पाण्‍डयदेश तथा श्रीशैलकी ओर प्रस्‍थान किया । उसने रणभूमिमें केरल नरेश, राजा नील तथा वेणुदारिपुत्रको हाराया और दक्षिण दिशामें अन्‍य जितने प्रमुख भूपाल थे, उन सबको जीतकर उनसे कर वसूल किया ।इसके बाद सूतपुत्र महाबली कर्णने चेदिदेशमें जाकर शिशुपालके पुत्रको हराया और उसके पार्श्‍ववर्ती नरेशोंको भी अपने अधीन कर लिया । भरतश्रेष्‍ठ ! तदनन्‍तर उसने सामनीतिके द्वारा अवन्‍तीदेशके राजाओंको वशमें करके वृष्णिवंशी यादवोंसे हिल-मिलकर पश्चिम दिशापर विजय प्राप्‍त की । इसके बाद पश्चिम दिशामें जाकर यवन तथा बर्बर राजाओंको, जो पश्चिम देशके ही निवासी थे, पराजित करके उनसे कर लिया । इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्‍तर दक्षिण सब दिशाओंकी समूची पृथ्‍वीको जीतकर म्‍लेच्‍छ, वनवासी, पर्वतीय भद्र, रोहितक, आग्रेय तथा मालव आदि समस्‍त गणराज्‍योंको परास्‍त किया । इसके बाद नीतिके अनुसार काम करने-वाले सूतनन्‍दन कर्णने हँसते-हँसते शशक और यवन राजाओंको भी जीत लिया । इस प्रकार पुरूषसिंह महारथी कर्ण नग्रजित् आदि महारथी नरेश समुदायों को जीतकर सारी पृथ्‍वीको पराजित कर‍के अपने वशमें कर लेनेके पश्‍चात् हस्तिनापुर को लौट आया ।। महाराज ! रणमें शोभा पाने वाले महधनुर्धर कर्णको आया हुआ जान भाई,पिता तथा बन्‍धु बान्‍धवों सहित राजा दुर्योधनने उसकी अगवानी की और विधिपूर्वक उसका स्‍वागत-सत्‍कार किया । तत्‍पश्‍चात् दुर्योधनने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर कर्णके दिग्‍विजयकी सब ओर घोषणा करा दी । तत्‍पश्‍चात उसने कर्णसे कहा-‘वीरवर तुम्‍हारा कल्‍याण हो । मुझे भीष्‍मजीसे आचार्य द्रोणसे, कृपाचार्यसे तथा बहिृकसे भी जो वस्‍तु नहीं मिली थी, वह तुमसे प्राप्‍त हो गयी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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