महाभारत वन पर्व अध्याय 259 श्लोक 1-16
एकोनषष्टयधिकद्विशततम (259) अध्याय: वन पर्व ( व्रीहिद्रौणिक पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं-भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! इस प्रकार वनमें रहते हुए उन महात्मा पाण्डवोंके ग्यारह वर्ष बडे कष्टसे बीते । वे फल-मूल खाकर रहते थे । सुख भोगनेके योग्य होकर भी माहान् कष्ट भोगते थे और यह सोचकर कि यह हमारे कष्ट का समय है, इसे धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, चुपचाप सब द:ख झेलते थे । उनमें ऐसा विवेक इसलिये था कि वे सबके सब श्रेष्ठ पुरूष थे । महाबाहु राजर्षि युधिष्ठिर सदा यही सोचते रहते थे कि ‘मेरे भाइयोंपर जो यह महान् द:ख आ पड़ा है, मेरी ही करनी का फल है । मेरे ही अपराधसे इन्हें कष्ट भोगना पड़ रहा है’ । इसी चिन्तामें पडे़-पडे़ राजा युधिष्ठिर रातमें सुखकी नींद नहीं सो पाते थे । ये बातें उनके हृदयमें चुभे हुए कांटोंके समान दु:ख दिया करती थीं । जुआ खेलनेके कारण भूत शकुनि आदिकी दुष्टता पर दृष्टिपात करके तथा सूतपुत्र कर्णकी कठोर बातोंको स्मरण करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर दीन भावसे लंबी सांसे लेते रहते और महान् क्रोध रूपी विषको अपने हृदयमें धारण करते थे । अर्जुन, दोनों भाई नकुल सहदेव, यशस्विनी द्रौपदी तथा सर्वश्रेष्ठ बलवान् महातेजस्वी भीमसेन भी राजा युधिष्ठिरकी ओर देखते हुए महानसे महान् दु:खको चुपचाप सहते रहे । ‘अब तो वनवासका थोड़ा-सा ही समय शेष रह गया है, ऐसा समझकर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने उत्साह एवं अमर्ष युक्त चेष्टाओंसे अपने शरीरको किसी और ही प्रकारका बना लिया था । तदनन्तर किसी समय महायोगी सत्यवती नन्दन व्यास पाण्डवोंको देखनेके लिये वहां आये । उन महात्माको आया देख कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनकी अगवानीके लिये कुछ दूर आगे बढ गये और विधिपूर्वक स्वागत-सत्कारके साथ उन्हें अपने साथ लिवा लाये । जब वे आसनपर बैठ गये, तब पाण्डवोंका आनन्द बढ़ाने वाले युधिष्ठिर अपनी इन्द्रियोंको संयममे रखते हुए सेवाकी इच्छासे व्यासजीके पासमें ही बैठ गये और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उन्होंने महर्षियों को सन्तुष्ट किया । अपने पौत्रोंको वनवासके कष्टसे दुर्बल तथा जंगली फल मूल खाकर जीवन निर्वाह करते देख महर्षि व्यासको बड़ी दया आयी । वे उनपर कृपा करनेके लिये नेत्रोंसे आंसू बहाते हुए गद्गद कण्ठसे बोले - ‘धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाबाहु युधिष्ठिर ! मेरी बात सुनो, संसारमें जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे महान् सुखकी उपलब्धि नही कर पाते हैं । मनुष्य बारी बारीसे सुख और दु:ख दोनों का सेवन करता है । ‘नरश्रेष्ठ ! कोई भी इस जगत्में ऐसा सुख नहीं पाता, जिसका कभी अन्त न हो । उत्तम बुद्धिसे युक्त ज्ञानवान् पुरूष ही उत्पत्ति,स्थिति और लयके अधिष्ठान रूप परमात्माको जानकर कभी हर्ष और शोक नहीं करता है । ‘ अत: विवेकी पुरूषको उचित है कि प्राप्त हुए सुखका ( त्यागपूर्वक ) सेवन करे और स्वत: आये हुए द:खका भार भी ( धैर्यपूर्वक ) वहन करे । जैसे किसान बीज बोकर समयके अनुसार प्रारब्धवश जितना अन्न मिलता है, उसे ग्रहण करता है; उसी प्रकार मनुष्य समय समय पर दैववश प्राप्त हुए सुख तथा द:खको स्वीकार करें । ‘भारत ! तपसे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है । तपसे मनुष्य महत्पद ( परमात्मा ) को प्राप्त कर लेता है तुम इस बातको अच्छी तरह जान लो कि तपस्यासे कुछ भी असाध्य नहीं है ।
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