महाभारत वन पर्व अध्याय 259 श्लोक 17-35

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एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम (259) अध्‍याय: वन पर्व ( व्रीहिद्रौणिक पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिरकी चिन्‍ता, व्‍यासजीका पाण्‍डवोंके पास आगमन और दानकी महत्‍ताका प्रतिपादन


‘महाराज ! सत्‍य, सरलता क्रोधका अभाव, देवता और अतिथियोंको देकर अन्‍न आदि ग्रहण करना, इन्द्रिय संयम, मनोनिग्रह, दूसरोंके दोष न देखना, हिंसा न करना, बाहर-भीतरकी पवित्रता रखना तथा सम्‍पूर्ण इन्द्रियोंको काबूमें रखना-ये पुण्‍यात्‍मा पुरूषोंके सद्गुण सबको पवित्र करनेवाले हैं । ‘जो लोग अधर्ममें रूचि रखने वाले हैं, वे मूढ़ मानव पशु-पक्षी आदि तिर्यग् योनियोंमें जन्‍म ग्रहण करते हैं । उन कष्‍टदायक योनियोंमें पड़कर वे कभी सुख नही पाते । ‘इस लोकमें जो कर्म किया जाता है’ उसका फल परलोकमें भोगना पड़ता है । इसलिये अपने शरीरको तप और नियमोंके पालनमें लगावे । ‘राजन् ! समयपर यदि कोई अतिथि आ जाय, तो क्रोधरहित और प्रसन्‍त्रचित्‍त होकर अपनी शक्तिके अनुसार उसे दान दे और विधिवत् पूजन करके उसे प्रणाम करें । ‘सत्‍यवादी मनुष्‍य दीर्घ आयु, क्‍लेशशून्‍यता ( सुख ) तथा सरलता प्राप्‍त करता है । जो क्रोध नहीं करता और दूसरोंके दोष नहीं देखता है, उसे परमानन्‍दकी प्राप्ति होती है । ‘जो सदा अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर मनका निग्रह करता है, उसे कभी क्‍लेशका सामना नहीं करना पड़ता । जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, वह दूसरोंकी सम्‍पत्ति देखकर संतप्‍त नहीं होता है । ‘जो देवताओं और अतिथियोंको उनका भाग समर्पित करता है, वह भोग-सामग्रीसे सम्‍पन्‍त्र होता है । दान करने वाला मनुष्‍य सुखी होता है । जो किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करता, उसे उत्‍तम आरोग्‍यकी प्राप्ति होती है । ‘जो माननीय पुरूषोंका सम्‍मान करता है, वह महान् कुलमें जन्‍म पाता है । जितेन्द्रिय पुरूष कभी दुर्व्‍यसनोंमें नहीं फसता है उसे इस लोक और परलोकमें भी अत्‍यन्‍त सुखकी प्राप्ति होती है ।‘जिसकी बुद्धि शुभमें ही आसक्‍त होती है, वह मनुष्‍य मृत्‍युको प्राप्‍त होनेपर उस शुभके संयोगसे कल्‍याणबुद्धि होकर ही उत्‍पन्‍त्र होता है’ । युधिष्ठिरने पूछा-भगवन ! महामने ! दान धर्म एवं तपस्‍या-इनमेंसे किसका फल परलोकमें अधिक माना गया है ? और इन दोनोंमें कौन दुष्‍कर बाताया जाता है ? व्‍यासजीने कहा-तात ! दानसे बढ़़कर दुष्‍कर कार्य इस पृथ्‍वी पर दूसरा कोई नहीं है । लोगोंको धनका लोभ अधिक होता है और धन मिलता भी बड़े कष्‍टसे है । महामते ! कितने ही साहसी मनुष्‍य रत्‍नोंके लिये अपने प्‍यारे प्राणोंका मोह छोड़कर समुद्रमें गोते लगाते हैं और धनके लिये घोर जंगलोंमें भटकते फिरते हैं । कुछ मनुष्‍य कृषि तथा गोरक्षाको अपनी जीविकाका साधन बनाते हैं, कुछ लोग धनकी इच्‍छासे नौकरी करनेके लिये दूर निकल जाते हैं । अत: दुख सहकर कमाये हुए धनका परित्‍याग करना अत्‍यन्‍त कठिन है । दानसे बढ़कर दूसरा कोई दुष्‍कर कार्य नहीं है । इसलिये मेरे मतमें दान ही सर्वश्रेष्‍ठ है । यहां विशेष बात यह जाननी चाहिये कि मनुष्‍य न्‍याय से कमाये गये धनको उत्‍तम देश, काल और पात्र का विचार करते हुए श्रेष्‍ठ पुरूषोंको दे । अन्‍यायसे प्राप्‍त किये हुए धनके द्वारा जो दानधर्म किया जाता है, वह कर्ताकी महान् भयसे रक्षा नहीं कर पाता । युधिष्ठिर ! यदि विशुद्ध मनसे उत्‍तम समयपर सत्‍पात्रको थोडा-सा भी दान दिया गया हो, तो वह परलोकमें अनन्‍त फल देनेवाला माना गया है । इस विषयमें जानकार लोग इस पुराने इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं मुद्गल ऋषिने एक द्रोण धानका दान करके महान् फल प्राप्‍त किया था ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्‍तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्वमें दानकी दुष्‍करताका प्रतिपादन विषयक दो सौ उनसठवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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