महाभारत वन पर्व अध्याय 262 श्लोक 1-20
द्विषष्टयधिकद्विशततम (262) अध्याय: वन पर्व (द्रोपदीहरण पर्व )
जनमेजयने पूछा-महामुनि वैशम्पायनजी ! जब महात्मा पाण्डव इस प्रकार वनमें रहकर मुनियोंके साथ विचित्र कथा वार्ता द्वारा मनोरज्जन करते थे तथा जबतक द्रौपदी भोजन न कर ले, तब तक सूर्यके दिये हुए अक्षय पात्रसे प्राप्त होने वाले अन्नसे वे उन ब्राह्मणोको तृप्त करते थे, जो भोजनके लिये उनके पास आये होते थे; उन दिनो दु:शासन, कर्ण और शकुनिके मतके अनुसार चलने वाले पापाचारी दुरात्मा दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र पुत्रोंने उन पाण्डवोंके साथ कैसा बर्ताव किया ? भगवन् ! मेरे प्रश्नके अनुसार ये सब बातें कहिये ।वैशम्पायनजी ने कहा–महाराज ! जब दुर्योधनने सुना कि पाण्डव लोग तो वनमें भी उसी प्रकार दान पुण्य करते हुए आनन्दसे रह रहे हैं, जैसे नगरके निवासी रहा करते हैं, तब उसने उनका अनिष्ट करनेका विचार किया । इस प्रकार सोचकर छल-कपटकी विद्यामें निपुण कर्ण और दु:शासन आदिके साथ जब वे दुरात्मा धृतराष्ट्र पुत्र भॉंति-भातिके उपायोंसे पाण्ड़वोंको संकटमें डालनेकी युक्तिका विचार कर रहे थे,उसी समय महायस्वी धर्मात्मा तपस्वी महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्योंको साथ लिये हुए वहां स्वेच्छासे ही आ पहुंचे । परम क्रोधी दुर्वासामुनि को आया देख भाइयोंसहित श्रीमान राजा दुर्योधन ने अपन इन्द्रियोंको काबूमें रखकर नम्रतापूर्वक विनीतभावसे उन्हें अतिथिसत्कारके रूप में निमन्त्रित किया । दुर्योधनने स्वयं दासकी भॉंति उनकी सेवामें खड़े रहकर विधिपूर्वक उनकी पूजाकी । मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा कई दिनों तक वहां ठहरे रहे । महाराज जनमेजय ! राजा दुर्योधन ( श्रद्धासे नही अपितु ) उनके शापसे डरता हुआ दिन-रात आलस्य छोड़कर उनकी सेवा में लगा रहा । वे मुनि कभी कहते ‘राजन् ! मैं बहुत भूखा हूँ, मुझे शीघ्र भोजन दो’ ऐसा कहकर वे स्नान करनेके लिये चले जाते और बहुत देर के बाद लौटते थे । लौटकर वे कह देते –‘मैं नहीं खाऊंगा; आज मुझे भूख नहीं है’ ऐसा कहकर अदृश्य हो जाते थे । फिर कहींसे अकस्मात् आकर कहते-हमलोगोंको जल्दी भोजन कराओ ।’ कभी आधी रातमें उठकर उसे नीचा दिखानेके लिये उद्यत हो पूर्ववत् भोजन बनवाकर उस भोजनकी निन्दा करते हुए भोजन करने से इन्कार कर देते थे ।भारत ! ऐसा उन्होंने कई बार किया, तो भी जब राजा दुर्योधनके मनमें विकार या क्रोध नहीं उत्पन्त्र हुआ, तब वे दुर्धर्ष मुनि उसपर बहुत प्रसन्त्र हुए और इस प्रकार बोले-‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ’ । दुर्वासा बोले- राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके लिये वर मांगो । मेरे प्रसन्त्र होनेपर जो धर्मानुकूल वस्तु, होगी वह तुम्हारे लिये अलभ्य नहीं रहेगी । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेज ! शुद्ध अन्त: करण वाले महर्षि दुर्वासाका यह वचन सुनकर दुर्योधनने मन-ही-मन ऐसा समझा, मानो उसका नया जन्म हुआ हो ।मुनि संतुष्ट हो, तो क्या मांगना चाहिये,इस बातके लिेय कर्ण और दु:शासन आदिके साथ उसकी पहलेसे ही सलाह हो चुकी थी । राजन् ! उसी निश्चयके साथ दुर्बुद्धि दुर्योधनने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह वर मांगा-‘ब्रह्मन् ! हमारे कुलमें महाराज युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं । इस समयवे धर्मात्मा पाण्डु कुमार अपने भाइयोंके साथ वनमे निवास करते हैं । युधिष्ठिर बड़े गुणवान और सुशील हैं । जिस प्रकार आप मेरे अतिथि हुए । उसी तरह शिष्योंके साथ आप उनके भी अतिथि होइये ।
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