महाभारत वन पर्व अध्याय 262 श्लोक 21-28
द्विषष्टयधिकद्विशततम (262) अध्याय: वन पर्व (द्रोपदीहरण पर्व )
‘यदि आपकी मुझपर कृपा हो तो मेरी प्रार्थनासे आप वहां ऐसे समयमें जाइयेगा, जब परम सुन्दरी यशस्विनी सुकुमारी राजकुमारी द्रौपदी समस्त ब्राह्मणों तथा पांचो पतियोंको भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करनेके पश्चात् सुख पूर्वक बैठकर विश्राम कर रही हो’। ‘तुम प्रेम होनेके कारण मैं वैसा ही करुँगा’, दुर्योधनसे ऐसा कहकर विप्रवर दुर्वासा जैसे आये थे, वैसे ही चले गये । उस समय दुर्योधने अपने आपको कृतार्थ माना । वह कर्णका हाथ अपने हाथमें लेकर अत्यन्त प्रसन्त्र हुआ । कर्णने भी भाइयों सहित राजा दुर्योधनसे बड़े हर्षके साथ इस प्रकार कहा । कर्ण बोला-कुरूनन्दन ! सौभाग्यसे हमारा काम बन गया । तुम्हारा अभ्युदय हो रहा है, यह भी भाग्यकी ही बात है । तुम्हारे शत्रु विपत्तिके अपार महासागरमें ड़ब गये, यह कितने सौभाग्यकी बात है ? पाण्डव दुर्वासाकी क्रोधग्निमें गिर गये हैं और अपने ही महापापोंके कारण वे दुस्तर नरकमें जा पड़े हैं । वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! छल कपटकी विद्यामें प्रवीण दुर्योधन आदि इस प्रकार बातें करते और हंसते हुए प्रसन्त्र मनसे अपने-अपने भवनोंमें गये ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रोपदीहरण पर्वमें दूर्वासाका उपाख्यानविषयक दो सौ बासठवां अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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