महाभारत वन पर्व अध्याय 271 श्लोक 1-22
एकसप्तत्यधिकद्विशततम (271) अध्याय: वन पर्व (द्रोपदीहरण पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! तब सिन्धुराज जयद्रथ ‘ठहरो, मारो, जल्दी दौड़ो’ कहकर अपने साथ आये हुए राजाओंको युद्धके लिये उत्साहित करने लगा ।उस समय रणभूमिमें युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवको देखकर जयद्रथके सैनिकोंमें बड़ा भंयकर कोलाहल मच गया । सिंहके समान उत्कट बलवान् पुरूषसिंह पाण्डवोंको देखकर शिबि, सौवीर तथा सिन्धुदेशके राजाओंके मनमें भी अत्यन्त विषाद छा गया । जिसका ऊपरी भाग स्वर्णपत्रसे जटित होनेके कारण विचित्र शोभा पाता था, जिसका सब कुछ शैक्य नामक लोहेसे बनाया गया था, उस विशाल गदाको हाथमें लेकर भीमसेन कालप्रेरित जयद्रथकी ओर दौड़े । इतनेमें ही रथोंकी विशाल सेनाके द्वारा भीमसेनको सब ओरसे घेरकर कोटिकास्यने जयद्रथ और भीमसेनके बीचमें भारी व्यवधान ड़ाल दिया । उस समय सब योद्धा भीमसेन पर अपनी भुजाओंके द्वारा चलाकर शक्ति, तोमर और नाराच आदि बहुत-से अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे; परंन्तु भीमसेन इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए । उन्होंने जयद्रथकी सेनाके मुहानेपर जाकर अपनी गदाकी चोटसे सवारसहित एक हाथी और चौदह पैदलोंको मार डाला । इसी प्रकार अर्जुनने सौवीरराज जयद्रथको पकड़नेकी इच्छा रखकर सेनाके अग्रभागमें स्थित पाँच सौ शूरवीर पर्वतीय महारथियों को मार ड़ाला । स्वयं राजा युधिष्ठिरने भी उस समय अपने ऊपर प्रहार करने वाले सौवीर क्षत्रियोंके सौ प्रमुख वीरोंको पलक मारते-मारते समरांगणमें मार गिराया । महावीर नकुल हाथमें तलवार लिये रथसे कूद पड़े और पादरक्षक सैनिकोंके मस्तक काट-काटकर बीजकी भाँति उन्हें बार-बार धरतीपर बोते दिखायी दिये। सहदेव रथद्वारा आगे बढ़कर हाथीसवार योद्धाओंसे भिड़ गये और नाराच नामक बाणोंसे मार-मारकर उन्हें इस प्रकार नीचे गिराने लगे, मानो कोई ब्याध वृक्षोंपरसे मोरोंको घायल करके गिरा रहा हो । तदनन्तर धनुष हाथमें लिये त्रिगर्तराजने अपने विशाल रथसे उतरकर राजा युधिष्ठिरके चारों घोडोंको गदासे मार डाला । उसे पैदल ही पास आया देख कुन्तीनन्दन धर्मराज युधिष्ठिरने अर्धचन्द्रकार बाणसे उसकी छातीको छेद डाला । तब हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वीर त्रिगर्त राज मुखसे रक्त वमन करता हुआ राजा युधिष्ठिरके सामने ही जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा । इधर धर्मराज युधिष्ठिर अपने घोडे़ मारे जानेके कारण सारथि इन्द्रसेनके साथ सहदेवके विशाल रथपर जा बैठे । दूसरी ओर क्षेमंकर और महामुख नामक दो वीर ( राजकुमार ) नकुलको लक्ष्य करके दोनो ओरसे तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे । उस समय तोमरोंकी वर्षा करते हुए वे दोनो योद्धा वर्षाऋतुके दो बादलोंके समान जान पडते थे परन्तु माद्री नन्दन नकुलके एक-एक विपाठ नामक बाण मारकर उन दोनोको धराशायी कर दिया । तदनन्तर हाथीका संचालन करनेमें निपुण त्रिगर्तराज सुरथने नकुलके रथके धुरेके पास पहुंचकर अपने हाथीके द्वारा उनके रथको दूर फेंकवा दिया । परंतु नकुल को इससे तनिक भी भय नहीं हुआ । वे हाथमें ढ़ाल तलवार लिये उस रथसे कूद पड़े और एक निरापद स्थानमें आकर पर्वतकी भाँति अविचलभावसे खड़े हो गये । तब सुरथिने कुपित होकर अत्यन्त ऊँचे सूंड़ उठाये हुए उस गजराजको नकुलका वध करनेके लिये प्रेरित किया। परंतु नकुलने खड़गद्वारा अपने निकट आये हुए उस हाथीकी सूंडको दांतोसहित जड़से काट डाला । फिर तो घुघुरूओंसे विभूषित वह गजराज बड़े जोरसे चीत्कार करके नीचे मस्तक किये पृथ्वीपर गिर पड़ा । गिरते-गिरते उसने महावतको भी पृथ्वीपर दे मारा ।
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