महाभारत वन पर्व अध्याय 271 श्लोक 23-45
एकसप्तत्यधिकद्विशततम (271) अध्याय: वन पर्व (द्रोपदीहरण पर्व )
यह महान पराक्रम प्रकट करके शूरवीर माद्रीनन्दन महारथी नकुल भीमसेनके रथपर चढ़ गये और वहीं पहुंचकर उन्हें शान्ति मिली । इधर भीमसेनने युद्धमें अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले राजा कोटिकास्यके सारथिका, जो उस समय घोड़ोंका संचालन कर रहा था, छुरेसे सिर उड़ा दिया । परंतु राजाको यह मालूम न हो सका कि बाहुशाली भीमके द्वारा मेरा सारथि मारा गया है । उसके मारे जानेसे कोटिकास्यके घोड़े रणभूमिमें इधर-उधर भागने लगे । सारथिके नष्ट हो जानेसे कोटिकास्यको रणसे विमुख हुआ देख योद्धाओंमें श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन भीमसेनने उसके पास जाकर प्रास नामक मूठदार शस्त्रसे उसे मार डाला । अर्जुनने सौवीरदेशके जो बारह राजकुमार थे, उन सबके धनुष और मस्तक अपने भल्ल नामक तीखे बाणोंसे काट गिराये । उन अतिरथी वीरने युद्धमें बाणोंके लक्ष्य बने हुए शिबि, इक्ष्वाकु, त्रिगर्त और सिन्धुदेशके क्षत्रियोंको भी मारा डाला । सव्यसाची अर्जुनके द्वारा मारे या नष्ट किये गये पताका-सहित बहुतेरे हाथी और ध्वजायुक्त अनेक विशाल रथ दृष्टिगोचर हो रहे थे । उस समय बिना सिरके धड़ और बिना धड़के सिर समस्त रणभूमिको अच्छादित करके बिखरे पड़े थे । वहॉं मारे गये वीरोंके मास तथा रक्तसे कुत्ते, गीध, कंक ( सफेद चीले ), काकोल ( पहाड़ी कौए ), चीलें गीदड़ और कौए तृप्त हो रहे थे । उन वीरोंके मारे जानेपर सिन्धुराज जयद्रथ भयसे थर्रा उठा और द्रौपदीको वहीं छोड़कर उसने भाग जानेका विचार किया । उस तितर-बितर हुई सेनाके बीच उस द्रौपदीको रथसे उतारकर नराधम जयद्रथ अपने प्राण बचानेके लिये वनकी ओर भागा । धर्मराज युधिष्ठिरने देखा कि द्रौपदी धौम्य मुनिको आगे करके आ रही है, तो उन्होंने वीरवर माद्रीनन्दन सहदेवद्वारा उसे रथ पर चढ़वा लिया । जयद्रथके भाग जानेपर सारी सेना इधर-उधर भाग चली, परन्तु भीमसेन अपने नाराचोंद्वारा नाम बता बताकर उन सैनिकोका वध करने लगे । जयद्रथको भागते देख अर्जुनने उसके सैनिकोंके संहारमें लगे हुए भीमसेनको रोका । अर्जुन बोले–जिसके अत्याचारसे हम लोगोंको यह दु:सह क्लेश सहन करना पड़ा है, उस जयद्रथको तो मैं इस समरभूमिमें देखता ही नहीं हूँ । भैया ! आपका भला हो, आप जयद्रथ की ही खोज करें, इन (निरीह) सैनिकोंको मारनेसे क्या लाभ ? यह कार्य तो निष्फल दिखाई देता है अथवा आप इसे कैसा समझते हैं ? वैशम्पायन जी कहते हैं-जनमेजय ! बुद्धिमान अर्जुनके ऐसा कहनेपर बातचीतमें कुशल भीमसेनने युधिष्ठिरकी ओर देखकर कहा- ‘राजन् ! शत्रुओंके प्रमुख वीर मारे जा चुके हैं और बहुत से सैनिक सब दिशाओंमें भाग गये हैं । अब आप द्रौपदीको साथ लेकर यहाँसे आश्रमको लौटिये । ‘महाराज ! आप नकुल, सहदेव तथा महात्मा धौम्यके साथ आश्रमपर पहुँचकर द्रौपदीको सान्त्वना दीजिये । ‘मूर्ख सिन्धुराज जयद्रथ यदि पातालमें घुस जाय अथवा इन्द्रभी उसके सारथि या सहायक होकर आ जायं, तो भी आज वह मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकता’। युधिष्ठिर बोले-महाबाहो ! सिन्धुराज जयद्रथ यद्यपि अत्यन्त दुरात्मा है; तथापि बहिन दु:शला और यस्विनी माता गान्धारीको स्मरण करके उसका वध न करना । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! युधिष्ठिर की यह बात सुनकर द्रौपदीकी सारी इन्द्रिया व्याकुल हो उठीं । वह लज्जावती और बुद्धिमती होनेपर भी भीमसेन और अर्जुन दोनों पतियोंसे कुपित होकर बोली- ‘यदि आप लोगोंको मेरा प्रिय करना है, तो उस नराधमको अवश्य मार डालिये । वह पापी दुर्बद्धि जयद्रथ सिन्धुदेशका कलंक और कुलागांर है ।
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