महाभारत वन पर्व अध्याय 310 श्लोक 1-17
दशाधिकत्रिशततम (310) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! देवराज को ब्राह्मण के छद्मवेष में छिपकर आये देख कर्ण ने कहा- ‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है।’ परंतु कर्ण को उस समय इन्द्र के मनोभाव का कुछ भी पता न चला। तब अधिरथकुमार ने उन ब्राह्मणरूपी इन्द्र से कहा- ‘विप्रवर ! मैं आपको क्या हूँ ? सोने के कण्ठों से विभूषित स्त्रियाँ अथवा बहुसंख्यक गोधनों से भरे हुए अनुक ग्राम ?’ ब्राह्मण बोले- वीरवर ! तुम्हारी दी हुई सोने के कंठो से विभमषित युवती स्त्रियाँ तथा दूसरी आनन्दवर्धक वस्तुएँ मैं नहीं लेना चाहता। इन वस्तुओं को उन याचकों को दे दो, जो इनकी अभिलाषा लेकर आये हों। अनध ! यदि तुम सत्यव्रती हो, तो ये जो तुम्हारे शरीर के साथ उत्पन्न हुए कवच और कुण्डल हैं, इन्हें काटकर मुझे दे दो । परंतप ! तुम्हारा दिया हुआ यही दान मैं शीघ्रतापूर्वक लेना चाहता हूँ। यही मेरे लिये सम्पूर्ण लाभों में सबसे बढ़कर लाभ है । कर्ण ने कहा- ब्रह्मन् ! यदि आप घर बनाने के लिये भूमि, गृहस्थी बसाने के लिये सुन्दरी तरुणी स्त्रियाँ, बहुत सी गौएँ, खेत और बहुत वर्षों तक चालू रहने वाली जीवन वृत्ति लेना चाहें, तो दे दूँगा; परंतु कवच और कुण्डल नहीं दे सकता। वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार बहुत सी बातें कहकर कर्ण के प्रार्थना करने पर भी उन ब्राह्मणदेव ने दूसरा कोई वर नहीं माँगा। कर्ण ने उन्हें यथाशक्ति बहुत समझाया एवं विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तथापि उन द्विजश्रेष्ठ ने और किसी वर को लेने से अनिच्छा प्रकट कर दी। राजन् ! जब उन द्विजश्रेष्ठ ने कर्ण से सहज कवच और 1818 कुण्डल के सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं माँगी, तक राधानन्दन कर्ण ने उनसे हँसते हुए से कहा- ‘विप्रवर ! कवच तो मेरे शरीर के साथ ही उत्पन्न हुआ है और दोनों कुण्डल भी अमृत से प्रकट हुए हैं। इन्हीं के कारण मैं संसार में अवध्य बना हुआ हूँ; अतः मैं इन सब वस्तुओं को त्याग नहीं सकता। ‘ब्राह्मण प्रवर ! आप मुझसे समूची पृथ्वी का कल्याणमय अकण्टक, विशाल एवं उत्तम साम्राज्य ले लें। ‘द्विजश्रेष्ठ ! इस सहज कवच और दोनों कुण्डलों से वंचित हो जाने पर मैं शत्रुओं का वध्य हो जाऊँगा (अतः इन्हें न माँगिये)’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इतना अनुनय विनय करने पर भी जब पाकशासन भगवान इन्द्र ने दूसरा कोई वर नहीं माँगा, तब कर्ण ने हँसकर पुनः इस प्रकार कहा- ‘देवदेवश्वर ! प्रभो ! आप पधार रहे हैं, यह बात मुझे पहले से ही ज्ञात हो गयी थी। पर देवेन्द्र ! मैं आपको निष्फल वर दूँ, यह न्यायसंगत नहीं है। ‘आप साक्षात् देवेश्वर हैं। उचित तो यही है कि आप मुझे वर दें; क्योंकि आप अन्य सब भूतों के ईश्वर तथा उन्हें उत्पन्न करने वाले हैं। ‘इन्द्रदेव ! यदि मैं आपको अपने दोनों कुण्डल और कवच दे दूँगा, तो मैं तो शत्रुओं का वध्य हो जाऊँगा और संसार में आपकी हँसी होगी। इसलिये (कर्ण ने सूर्य की आज्ञा को याद करके कहा-) शक्र ! आप केछ बदला देकर इच्छानुसार मेरे कुण्डल और उत्तम कवच ले जाइये; अन्यथा मैं इन्हे नहीं दे सकता’।
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