महाभारत वन पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-12
चतुर्थ (4) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
विदुरजी का धृतराष्ट्र को हित ही सलाह देना और धृतराष्ट्र का रूष्ट होकर महल में चले जाना
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! जब पाण्डव वन में चले गये, तब प्रज्ञाचक्षु अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र मन-ही-तन संतप्त हो उठे। उन्होंने अगाध बुद्धि धर्मात्मा विदुर को बुलाकार स्वयं सुखद् आसन पर बैठे हुए उनसे इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र बोले- विदुर ! तुम्हारी बुद्धि शुक्राचर्य के समान शुद्ध है तुम सूक्ष्म-से-सूक्ष्म श्रेष्ठ धर्म को जानते हो तुम्हारी सबके प्रति समान दृष्टि है और कौरव तुम्हारा सम्मान करते हैं। अतः मेरे इन पाण्डवों के लिए जो हितकर कार्य हो, वह मुझे बताओ। विदुर ! ऐसी दशा में हमारा जो कर्तव्य हो वह बताओ। ये पुरवासी कैसे हम लोगों से प्रेम करेंगे? तुम ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे वे पाण्डव हम लोगों को जड.-मूल सहित उखाड़ न फेंकें। तुम अच्छे कार्यों को जानते हो। अतः हमें ठीक-ठीक कर्तव्य का निर्देशन करो।
विदुरजी ने कहा - नरेन्द्र ! धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की प्राप्ति का मूल कारण धर्म से ही है। धर्मात्मा पुरुष भी इस राज्य की जड़ भी धर्म को ही बतलाते हैं, अतः महाराज आप धर्म के मार्ग पर स्थिर रहकर यथाशक्ति अपने तथा पाण्डु के सब पुत्रों का पालन कीजिए। शकुनि आदि पापात्माओं ने द्यूतसभा में उस धर्म के साथ विश्वासघात किया क्योंकि आपके पुत्र ने सत्यप्रतिज्ञ कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर को बुलाकर उन्हें कपटपूर्वक पराजित किया। कुरू राजा ! दुरात्माओं द्वारा पाण्डवों के किये हुए इस दुर्व्यवहार की शान्ति का उपाय मैं जानता हूँ, जिससे आपका पुत्र दुर्योधन पाप से मुक्त हो लोक में भली- भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। आपने जो पाण्डवों को राज्य दिया था, वह सब उन्हें मिल जाना चाहिये। राजा के लिये यह सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने धन से संतुष्ट रहे। दूसरे के धन पर लोभ भरी दृष्टि न डाले। ऐसा कर लेने पर आपके यश का नाश नहीं होगा, भाइयों में फूट नहीं होगी और आपको धर्म की भी प्राप्ति होगी। आपके लिये सबसे प्रमुख कार्य यह है कि पाण्डवों को संतुष्ट करें और शकुनि का तिरस्कार करें। राजन् ! ऐसा करने पर भी आपके पुत्रों का भाग्य शेष होगा तो उनका राज्य उनके पास रह जायेगा। अतः आप शीघ्र ही यह काम कर डालिये।
महाराज ! यदि आप ऐसा न करेंगे तो कौरवकुल का निश्चय ही नाश हो जायेगा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन अथवा अर्जुन अपने शत्रुओं की सेना में से किसी को भी जीवित नहीं छोड़ेगे। अस्त्र विद्या में निपुण सव्यसाची अर्जुन जिनके योद्धा हैं,सम्पूर्ण लोकों का सारभूत गाण्डवी जिनका धनुष है तथा अपने बाहुबल से सुसोभित होने वाले भीमसेन जिनकी ओर से युद्ध करने वाले हैं, उन पाण्डवों के लिए संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्राप्त न हो सके। आपके पुत्र दुर्योधन के जन्म लेते ही मुझे उस समय जो हित ही बात जान पड़ी वह मैंने पहले ही बता दी थी। मैंने साफ कह दिया था कि आपका यह पुत्र समस्त कुल का अहित करने वाला है, अतः इसको त्याग दीजिए परंतु आपने मेरी उत्तम और सात्विक सलाह के अनुसार कार्य नहीं किया । राजन ! इस समय भी मैंने जो यह आपके हित की बात बतायी है यदि उसे आप नहीं करेंगे तो आपको बहुत पश्चाताप करना पड़ेगा।
« पीछे | आगे » |