महाभारत वन पर्व अध्याय 63 श्लोक 18-34
त्रिषष्टितम (63) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
इस प्रकार विलाप करती क्या हिंस्त्र जन्तुओं से भरे हुए वन में अपने पति को ढूंढ़ती हुई महामना राजा नल की पत्नी भीमकुमारी दमयन्ती उन्मत्त हुई रोती-बिलखती और ‘हा राजन्, ‘हा महाराज’ ऐसा बार-बार कहती हुई इधर-उधर दौड़ने लगी। वह कुकरी पक्षी की भांति जोर-जोर से करूण क्रन्द्रन कर रही थी और अत्यन्त शोक करती हुई बार बार विलाप कर रही थी। वहां से थोड़ी ही दूर पर एक विशालकाय भूख अजगर बैठा था। उसने बार-बार चक्कर लगाती सहसा निकट आयी हुई भीमकुमारी दमयन्ती को (पैरों की ओर से) निगलना आरम्भ कर दिया। शोक में डूबी हुई वैदर्भी को अजगर निगल रहा था, तो वह अपने लिये उतना शोक नहीं कर रही थी, जितना शोक उसे निषध-नरेश नल के लिये था। (वह विलाप करती हुई कहने लगी-) ‘हा नाथ ! इस निर्जन वन में यह अजगर सर्प मुझे अनाथ की भांति निगल रहा है। आप मेरी रक्षा के लिये दौड़कर आते क्यों नहीं हैं ? ‘निषधनरेश ! यदि मैं मर गयी, तो मुझे बार-बार याद करके आपकी कैसी दशा हो जायेगी ? प्रभो ! आज मुझे वन में छोड़कर आप क्यों चले गये ? ‘निष्पाप निषधनरेश ! इस संकट से मुक्त होने पर जब आपको पुनः शुद्ध बुद्धि, चेतना और धन आदि की प्राप्ति होगी, उस समय मेरे बिना आपकी क्या दशा होगी ? नृपप्रवर ! जब आप भूख से पीडि़त हो थके-मांदे एवं अत्यन्त खिन्न होंगे, उस समय आपकी उस थकावट को कौन दूर करेगा ?’ इसीसमय कोई व्याध उस गहन वन में विचर रहा था वह दमयन्ती का वरूण क्रन्दन सुनकर बड़े वेग से उधर आया। उस विशाल नयनों वाली युवती को अजगर के द्वारा उस प्रकार निगली जाती देख व्याधे बड़ी उतावली के साथ वेग से दौड़कर तीखें शस्त्र से शीघ्र ही उस अजगर का मुख फाड़ दिया। यह अजगर छटपटाकर चेष्टारहित हो गया। मृगों को मारकर जीविका चलानेवाले उस व्याध ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े करके दमयन्ती को छुड़ाया। फिर जल से उसके सर्पग्रस्त शरीर को धोकर उसे आश्वासन दे उसके लिये भोजन की व्यवस्था कर दी। भारत ! जब वह भोजन कर चुकी, तब व्याध्र ने उससे पूछा- ‘मृगलोचने ! तुम किसी स्त्री हो और कैसे वन में चली आयी हो ? भामिनि ! किस प्रकार तुम्हें यह महान् कष्ट प्राप्त हुआ है?’ भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर ! व्याध्र के पूछने पर दमयन्ती ने उसे सारा वत्तान्त यथार्थरूप से कहा सुनाया। स्थूल नितम्ब और स्तनोंवाली विदर्भकुमारी ने आधे वस्त्र से ही अपने अंगों को ढंक रखा था। पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली दमयन्ती का एक-एक अंग सुकुमार एवं निर्दोष था उसकी आंखें तिरछी बरौनियों से सुशोभित थीं और वह बड़े मधुर स्वर में बोल रही थी। इन सब बातों की ओर लक्ष्य करके वह व्याध काम के अधीन हो गया। वह मधुर एवं कोमल वाणी से उसे अपने अनुकूल बनाने के लिये भांति-भांति के आश्वासन देने लगा। वह व्याध उस समय कामवेदना से पीडि़त हो रहा था। सती दमयन्ती ने उसके दूषित मनोभाव को समझ लिया।
« पीछे | आगे » |