महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 63-83

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चतुःषष्टितम (64) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 63-83 का हिन्दी अनुवाद

वहां कुछ तपस्वी लोग केवल जल पीकर रहते थे और कुछ लोग वायु पीकर। कितने ही केवल पत्ते चबाकर रहते थे। वे जितेन्द्रिय महाभाग स्वर्गलोक के मार्ग का दर्शन करना चाहते थे। वल्कल और मृगचर्म धारण करनेवाले उन जितेन्द्रिय मुनियों से सेवित एक रमणीय आश्रयमण्डल दिखायी दिया, जिसमें प्रायः तपस्वीलोग निवास करते थे। उस आश्रम में नाना प्रकार के मृगों और वानरों के समुदाय भी विचरते रहते थे। तपस्वी महात्माओं से भरे हुए उस आश्रम को देखते ही दमयन्ती को बड़ी सान्त्वना मिली। उसकी भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। केश मनोहर जान पड़ते थे। नितम्बभाग, स्तन, दन्तपंक्ति और मुख सभी सुन्दर थे। उसके मनोहर कजरारे नेत्र विशाल थे। वह तेजस्विनी और प्रतिष्ठित थी। महाराज वीरसेन की पुत्रवधू रमणीशिरोमणि महाभागा तपस्विनी उन दमयन्ती ने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। वहां तपोवृद्ध महात्माओं को प्रमाण करके वह उनके समीप विनीत भाव से खड़ी हो गयी। तब वहां के सभी श्रेष्ठ तपस्वीजनों ने उससे कहा-‘देवि ! तुम्हारा स्वागत है’। तदनन्तर वहां दमयन्ती का यथोचित्त आदर सत्कार करके उन तपोधनों ने कहा-‘शुभे ! बैटो, बताओ, हम तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करें। उस समय सुन्दर अंगोंवाली दमयन्ती ने उनसे कहा-‘भगवन् ! निष्पाप महाभागगण ! यहां तप, अग्निहोत्र, धर्म, मृग और पक्षियों के पालन तथा अपने धर्म के आचरण आदि विषयों में आपलोग सकुशल हैं न ?’ तब उन महात्माओं ने कहो-‘भदे्र ! यशस्विनी ! सर्वत्र कुशल है। ‘सर्वागसुन्दरी ! बताओ, तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ? तुम्हारे उत्तम रूप को परम सुन्दर कांति को यहां देखकर हमे बड़ा विस्मय हो रहा है। धैर्य धारण करो, शोक न करो। तुम इस वन की देवी हो या इस पर्वत की अधिदेवता। ‘अनिन्दिते ! कल्याणि ! अथवा तुम इस नदी की अधिष्ठात्री देवी हो, सच-सच बताओ ।’ दमयन्ती ने उन ऋषियों से कहा-‘तपस्या के धनी ब्राह्मणों ! न तो मैं इस वन की देवी हूं, न पर्वत की अधिदेवता और न इस नदी की ही देवी हूं। आप सब लोग मुझे मानवी समझें। ‘मैं विस्तारपूर्वक अपना परिचय दे रहीं हूं, आप लोग सुनें। विदर्भदेश में भीम नाम के प्रसिद्ध एक भूमिपाल हैं। ‘द्विजवरों ! आप सब महात्मा जान लें, मैं उन्हीं महाराज की पुत्री हूं। निषध देश के स्वामी, संग्रामविजयी, वीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, प्रजापालक महायशस्वी राजा नल मेरे पति हैं। वे देवताओं के पूजन में संलग्न रहते हैं। और ब्राह्मणों के प्रति उनके हृदय में बड़ा स्नेह है। ‘वे निषधकुल के रक्षक, महातेजस्वी, महाबली, सत्यवादी, धर्मज्ञ, विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, शत्रुमर्दन, ब्राह्मणभक्त, देवोपासक, शोभा तथा सम्पति से युक्त तथा शत्रुओं की राजधानी पर विजय पानेवाले हैं। मेरे स्वामी नृपश्रेष्ठ नल देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके नेत्र विशाल हैं, उनका मुख सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर है, व शत्रुओं का संहार करनेवाले, बड़े-बड़े यज्ञों के आयोजन और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् हैं। ‘युद्ध में उन्होंने कितने शत्रुओं का संहार किया है। वे सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी और कांतिमान् हैं। एक दिन कुछ कपटकुशल, अजितेन्द्रिय, अनार्य, कुटिल तथा द्यूतनिपूर्ण जुआरियों ने उन सत्यधर्मपरायण महाराज नल को जूए के लिये आवाहन करके उनके सारे राज्य और घन का अपहरण कर लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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