महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 35-52

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चाचषष्टितम (65) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद

‘इतना ही नहीं, असंख्य सर्प आदि जन्तुओं से भरे हुए इस वन में मुझे अनाथ की-सी दशा में रहना पड़ता हैं,। तदनन्तर दूसरा दिन प्रारम्भ होने पर मरने से बचे हुए लोग उस स्थान से निकलकर उस विकट संहार के लिये शोक करने लगे। राजन् कोई भाई के लिये दुखी था, कोई पिता के लिये ; किसी को पुत्र का शोक था और किसी को मित्र का। विदर्भराजकुमारी दमयन्ती भी इसके लिये शोक करने लगी कि ‘मैंने कौन सा पाप किया है, जिससे इन निर्जन वन में मुझे जो यह समुद्र के समान जनसमुदाय प्राप्त हो गया था, वह भी मेरे ही दुभाग्य के झुंडद्वारा मारा गया। निश्चय ही मुझे अभी दीर्घकाल तक दुःख-ही-दुःख भोगना है। ‘जिनकी मृत्यु समय नहीं आया है, वह इच्छा होते हुए भी मर नहीं सकता। वृद्ध पुरूषों का यह जो उपदेश मैंने सुन रक्खा है, यह ठीक ही जान पड़ता है, तभी तो आज मैं दुःखित होने पर भी हाथियों के झुंड से कुचलकर मर न सकी। मनुष्यों को इस जगत् में कोई भी सुख या दुःख ऐसा नहीं मिलता, जो विधाता का दिया हुआ न हो। मैंने बचपन में भी मन, वाणी अथवा क्रियाओं ऐसा पाप नहीं किया है, जिससे मुझे यह दुःख प्राप्त होता। ‘मैं समझती हूं, स्वयंवर के लिये जो लोकपाल देवगण पधारे थे, नल के कारण मैंने उसका तिरस्कार कर दिया था। अवश्य उन्हीं देवताआंे के प्रभाव से आज मुझे वियोग का कष्ट प्राप्त हुआ है।’ इस प्रकार दुःख से आतुर हुई सुन्दरी पतिव्रता दमयन्ती ने उस समय अनेक प्रकार से विलाप एवं प्रलाप किये। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर मरने से बचे हुए वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों के साथ यात्रा करती हुई शरत्काल के चन्द्रमा की कला के समान वह सुन्दरी थोड़े ही समय में संध्या होते होते सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहु ही राजधानी में जा पहुंची। शरीर में आधी साड़ी को लपेटे हुए ही उसने उस उत्तम नगर में प्रवेश किया। वह विहृल, दीन और दुर्बल हो रही थी। उसके सिर के बाल खुले हुए थे। उसने स्नान नहीं किया था। पुरवासियों ने उसे उन्मत्ता की भांति जाते देखा। चेदिनरेश की राजधानी में उसे प्रदेश करते देख उस समय बहुत-से ग्रामीण बालक कौतूहलवश उसके साथ हो लिये थे। उनसे घिरी हुई दमयन्ती राजमहल के समीप गयी। उस समय राजमाता ने उसे महलपर से देखा। वह जनसाधारण से घिरी हुई थी। राजमाता ने धाय से कहा ‘जाओ, इस युवती को मेरे पास ले आओ। ‘इसे लोग तंग कर रहे हैं। वह दुःखिनी युवती कोई आश्रम चाहती है। मुझे इसका रूप ऐसा दिखायी देता है, जो मेरे घर को प्रकाशित कर लेगा। ‘इसका वेष तो उन्मत्त के समान है, परन्तु यह विशाल नेत्रोंवाली युवती कल्याणमयी लक्ष्मी के समान जान पड़ती हैं।’ धाय उन सब लोगों को हटाकर उसे उत्तम राजमहल की अट्टालिका पर चढ़ा ले आयी। राजन् ! तत्पश्चात् विस्मित होकर राजमाता ने दमयन्ती से पूछा-‘अहो ! तुम इस प्रकार दुःख से दबी होने पर भी इतना सुन्दर रूप कैसे धारण करती हो ?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।