महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 53-69

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पञ्चाचषष्टितम (65) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद

‘मेघमाला के प्रकाशित होनेवाली बिजली की भांति तुम इस दुःख में भी कैसी तेजस्विनी दिखायी देती हो। मुझसे बताओ, तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो,? यद्यपि तुम्हारे शरीर पर कोई आभूषण नहीं है तो भी तुम्हारा यह रूप मानव-जगत् का नहीं जान पड़ता। देवताकी-सी दिव्य कांति धारण करनेवाली वत्से ! तुम असहाय-अवस्था में होकर भी लोगों से डरती क्यों नहीं हो ?’ उसकी वह बात सुनकर भीमकुमारी ने कहा- ‘माताजी ! आप मुझे मानव-कन्या ही समझिये । मैं अपने पति के चरणों में अनुराग रखनेवाली एक नारी हूं। मेरी अन्तःपुर में काम करनेवाली सैरन्ध्री जाति है। मैं सेविका हूं और जहां इच्छा होती है, वहीं रहती हूं। ‘मैं अकेली हूं फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करती हूं और जहां सांझ होती है, वहीं टिक जाती हूं । मेरे स्वामी में असंख्य गुण हैं, उनका मेरे प्रति सदा अत्यन्त अनुराग है। ‘जैसे छाया राह चलनेवाले पथिक के पीछे-पीछे चलती है, उसी प्रकार मैं भी अपने वीर पतिदेव में भक्तिभाव रखकर सदा उन्हीं का अनुसरण करती हूं। र्दुभाग्यवश एक दिन मेरे पतिदेव जूआ खेलने में अत्यन्त आसक्त हो गये। ‘और उसी में अपना सब कुछ हारकर वे अकेले ही वन की ओर चले दिये। एक वस्त्र धारण किये उन्मत्त और विहृल हुए अपने वीर स्वामी को सान्त्वना देती हुई मैं भी उनके साथ वन में चली गयी । एक दिन की बात हैं, मेरे वीर स्वामी किसी कारणवश वन में गये। ‘उत्तम समय वे भूख से पीडि़त और अनमने हो रहे थे। अतः उन्होंने अपने उस एक वस्त्र को भी कहीं वन में छोड़ दिया। मेरे शरीर पर भी एक ही वस्त्र था। वे नग्न, उन्मत्त-जैसे और अचेत हो रहे थे। उसी दशा में सदा उनका अनुसरण करती हुई अनेक रात्रियों तक कभी सो न सकी ! तदनन्तर बहुत समय के पश्चात् एक दिन जब मैं सो गयी थी, उन्होंने मेरी आधी साड़ी फाड़ ली और मुझ निरपराधिनी पत्नी को वहीं छोड़कर वे कहीं चल दिये। मैं दिन-रात वियोगाग्नि में जलती हुई निरन्तर उन्हीं पतिदेव को ढूंढ़ती फिरती हूं। ‘मेरे प्रियतम की कांति कमल के भीतरी भाग के समान है। वे देवताओं के समान तेजस्वी, मेरे प्राणों के स्वामी और शक्तिशाली हैं। बहुत खोजने पर भी मैं अपने प्रिय को न तो देख सकी हूं और न उनका पता ही पा रहीं हूं’। भीमकुमारी दमयन्ती के नेत्रों में आंसू भरे हुए थे एवं वह आर्तस्वर से बहुत विलाप कर रही थी। राजमाता स्वयं भी उनके दुःख से दुखी हो बोली-‘कल्याणि ! तुम मेरे पास रहो । तुमपर मेरा बहुत प्रेम है। भद्रे ! मेरे सेवक तुम्हारे पति की खोज करेंगे। ‘अथवा यह भी सम्भव है, वे इधर-उधर भटकते हुए स्वयं ही इधर आ निकलें । भद्रे तुम यहीं रहकर अपने पति को प्राप्त कर लोगी’। राजमाता की यह बात सुनकर दमयन्ती ने कहा-‘वीरमातः मैं एक नियम के साथ आपके यहां रह सकती हूं। ‘मैं किसी का जूठा नहीं खाऊंगी, किसी के पैर नहीं धोऊंगी और किसी भी दूसरे पुरूष से किसी तरह भी वार्तालाप नहीं करूंगी। ‘यदि कोई पुरूष मुझे प्राप्त करना चाहे तो वह आपके द्वारा दण्डनीय हो और बार-बार ऐसे अपराध करनेवाले मूढ़ को आप प्राणदण्ड भी दें, यही मेरा निश्चित व्रत है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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