महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-19

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द्वयशीतितम (82) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

भीष्मजी के पूछने पर पुलस्त्यजी का उन्हें विभिन्न तीथों की यात्रा का माहात्म्य बताना

पुलस्त्यजी ने कहा-धर्मज्ञ ! उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महाभाग ! तुम्हारे इस विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यपालन से मैं बहुत संतुष्ट हूं। निष्पाप वत्स ! तुम्हारे द्वारा पितृभक्ति के आश्रित हो ऐसे उत्तम धर्म का पालन हो रहा है, इसी के प्रभाव से तुम मेरा दर्शन कर रहे हो और तुमपर मेरा बहुत प्रेम हो गया है। निष्पाप कुरूश्रेष्ठ भीष्म ! मेरा दर्शन अमोघ है। बोलो, मैं तुम्हारे किस मनोरथ की पूर्ति करूं ? तुम जो मांगोगे, वहीं दूंगा। भीष्मजी ने कहा-महाभाग ! आप सम्पूर्ण लोकोद्वारा पूजित हैं। आपके प्रसन्न हो जाने पर मुझे क्या नहीं मिला ? आप जैसे शक्तिशाली महर्षि का मुझे दर्शन हुआ, इतनेही से मैं अपने को कृतकृत्य मानता हूं। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महर्षे ! यदि मैं आपकी कृपा का पात्र हूं तो मैं आपके सामने अपना संशय रखता हूं। आप उसका निवारण करें। मेरे मन में तीर्थों से होनवाले धर्म के विषय में कुछ संशय हो गया है, मैं उसी का समाधान सुनना चाहता हूं; आप बताने की कृपा करें। देवतुल्य ब्रह्मर्षे ! जो (तीर्थों के उद्देश्य से) सारी पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है ? यह निश्चित करके मुझे बताइये। पुलस्त्यजी ने कहा- वत्स ! तीर्थयात्रा ऋर्षियों के लिये बहुत बड़ा आश्रय है। मैं इसके विषय में तुम्हें बताऊंगा तीर्थो के सेवन से जो फल होता है, उसे एकाग्र होकर सुनो। जिसके हाथ, पैर और मन अपने काबू में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्ति से सम्पन्न हो, वही तीर्थसेवन का फल पाता है। जो प्रतिग्रह से दूर रहे तथा जो कुछ अपने पास हो, उसी से संतुष्ट रहे और जिस में अहंकार का भाव हो, वही तीर्थ का फल पाता है। जो दम्भ आदि दोषों से दूर, कर्तृत्व के अहंकार से शून्य, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो, वह सब पापों से विमुक्त हो तीर्थ के वास्तविक फल का भागी होता है। ऋषियों ने देवताओं के उद्देश्य से यथायोग्य यज्ञ बताये हैं और उन यज्ञों का यथाव्त फल भी बताया है, जो इहलोक और परलोक में भी सर्वथा प्राप्त होता है। परंतु भूपाल ! द्ररिद मनुष्य उन यज्ञों का अनुष्ठान नहीं कर सकते ; क्योंकि उनमें बहुत सल सामग्रियों की आवश्यकता होती है। नाना प्रकार के साधनों का संग्रह होने से उनमें विस्तार बहुत बढ़ जाता है। अतः राजालोग अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनके पास धन की कमी और सहायको का अभाव होता है, जो अकेले और साधन शून्य हैं, उनके द्वारा यज्ञों का अनुष्ठान नहीं हो सकता। योद्धाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर ! जो सत्कर्म दरिद्रलोग भी कर सकें और जो अपने पुण्योंद्वारा यज्ञों के समान फलप्रद हो सके, उसे बताता हूं, सुनो। भरतश्रेष्ठ ! यह ऋषियों का परम गोपनीय रहस्य है। तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है। वह यज्ञों से भी बढ़कर है। मनुष्य इसीलिये द्ररिद होता है कि वह (तीथों में) तीन रात तक उपवास नहीं करता, तीर्थों की यात्रा नहीं करता और सुवर्ण-दान और गोदान नहीं करता। मनुष्य तीर्थ यात्रा में जिस फल को पाता है, उसी प्रचुर दक्षिणवाले अग्निष्टोम आदि यज्ञोंद्वारा यजन करके भी नहीं पा सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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