महाभारत वन पर्व अध्याय 92 श्लोक 18-27
द्विनवतितम (92) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तीर्थयात्रा के लिये जिन्होंने निश्चित विचार कर लिया था, उन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से महर्षि लोमश ने कहा-थोड़े ही लोगों को साथ रखिये ; क्योंकि थोड़े संगी-साथी होने पर आप इच्छानुसार सर्वत्र जा सकेंगे’। युधिष्ठिर बोले-जो भिक्षाभोजी ब्राह्मण और सन्यासी हैं तथा जो भुख-प्यास, परिश्रम-थकावट और सर्दी की पीड़ा सहन न कर सकें, उन्हें लौट जाना चाहिये। जो द्विज मिष्टान्नभोजी हैं, वे भी लौट जायं। जो पक्वान्न, चटनी, पेय पदार्थ और मांस आदि खानेवाले मनुष्य हों, वे भी लौट जायं। जो लोग रसोइयों की अपेक्षा रखनेवाले है तथा जिन्हें मैंने अलग-अलग बांटकर उचित-उचित आजीविका की व्यवस्था कर दी है, वे सब लोग घर लौट जायं। जो पुरवासी राजभक्तिवश मेरे पीछे-पीछे चले आये हैं, वे अब महाराज धृतराष्ट्र के पास चले जायं। वे उनके लिये यथासमय समुचित आजीविका प्रदान करेंगे। यदि राजा धृतराष्ट्र उचित उचित जीविका की व्यवस्था न करें तो पांचालनरेश द्रुपद हमारा प्रिय और हित करने के लिये अवश्य आपलोगों को जीविका देंगे। वैशम्पायजनजी कहते हैं-जनमेजय ! तब बहुत-से नागरिक, ब्राह्मण और यति मानसिक दुःख से भारी भार से पीडि़त हो हस्तिनापुर को चले गये। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने धर्मराज युधिष्ठिर के स्नेहवश उन सबको विधिपूर्वक अपनाया और उन्हें धन देकर तृप्त किया। तदनन्तर कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर थोड़े-से ब्राह्मणों और लोमशजी के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक तीन राततक काम्यक वन में टिके रहे।
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