महाभारत विराट पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-12
एकत्रिंश (31) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
चारों पाण्डवों सहित राजा विराट की सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान
वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज ! उन दिनों छद्मवेष में छिपकर उस श्रेष्ठ नगर में रहते और महाराज विराट के कार्य सम्पादन करते हुए अतुलित तेजस्वी महात्मा पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष भलीभाँति बीत चुका था। कीचक के मारे जाने पर शत्रुहनता राजा विराट कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के प्रति बड़ी आदरबुद्धि रखने और उनसे बड़ी बड़ी आशाएँ करने लगे थे। ‘भारत ! तदनन्तर तेरहवें वर्ष के अन्त में सुशर्मा ने बड़े वेग से आक्रमण करके विराट की बहुत सा गौओं को अपने अधिकार में कर लिया। इससे उस समय बड़ा भारी कोलाहल मचा। धरती की धूल उड़कर ऊँचे आकाश में व्याप्त हो गयी। शंख, दुन्दुभि तथा नगारों के महान् शब्द सब ओर गूँज उठे। बैलों, घोड़ों, रथों, हाथियों तथा पैदल सैनिकों की आवाज सब ओर फैल गयी।। इस प्रकार इन सबके साथ आक्रमण करके जब त्रिगर्तदेशीय योद्धा मत्स्यराज के गोधन को लेकर जाने लगे, उस समय उन गौओं के रक्षकों ने उन सैनिकों को रोका। भारत ! तब त्रिगर्तों ने बहुत सा धन लेकर उसे अपने अधिकार में करके शीघ्रगामी अश्वों तथा रथ समूहों द्वारा युद्ध में विजय का दृढ़ संकल्प लेकर उन गोरक्षकों का सामना करना आरम्भ किया। त्रिगर्तों की संख्या बहुत थी। वे हाथों में प्रास और तोमर लेकर विराट के ग्वालों को मारने लगे; तथापि गोसमुदाय के प्रति भक्तिभाव रखने वाले वे ग्वाले बलपूर्वक उन्हें रोके रहे। उन्होंने फरसे, मूसल, भिन्दिपाल, मुद्गर तथा ‘कर्षणा- नामक विचित्र शस्त्रों द्वारा सब ओर से शत्रुओं के अश्वो को मार भगाया। ग्वालों के आघात से अत्यन्त कुपित हो रथों द्वारा युद्ध करने वाले त्रिगर्त सैनिक बाणों की वर्षा करके उन ग्वालों को रणभूमि से खदेड़ने लगे। तब उन गौओं का रक्षक गोप, जिसने कानों में कुण्डल पहन रक्खे थे, रथ पर आरूढ़ हो तीव्र गति से नगर में आया और मत्स्यराज को देखकर दूर से ही रथ से उतर पड़ा। अपने राष्ट्र की उन्नति करने वाले महाराज विराट कुण्डल तथा अंगद (बाजूबन्द) धारी शूरवीर योद्धाओं से घिरकरमन्त्रियों तथा महात्मा पाण्डवों के साथ राजसभा में बैठे थे। उस समय उनके पास जाकर गोप ने प्रणाम करके कहा- ‘महाराज ! त्रिगर्तदेश के सैनिक हमें युद्ध में जीतकर और भाई-बन्धुओं सहित हमारा तिसस्कार करके आपकी लाखों गौओं को हाँककर लिये जा रहा है। ‘राजेन्द्र ! उन्हें वापस लेने-छुड़ाने की चेष्टा कीजिये; जिससे आपके वे पशु नष्ट न हो जायँ- आपके हाथों से दूर न निकल जायँ।’ यह सुनकर राजा ने मत्स्यदेश की सेना एकत्र की। उसमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदल - सब प्रकार के सैनिक भरे थे और वह ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त थी। फिर राजा तथा राजकुमारों ने पृथक्-पृथक् कवच धारण किये। वे कवच बड़े चमकीले, विचित्र और शूरवीरों के धारण करने योग्य थे। राजा विराट के प्रिय शतानीक ने सुवर्णमय कवच ग्रहण किया, जिसके भीतर हीरे और लोहे की जालियाँ लगी थीं। शतानीक से छोटे भाई का नाम मरिराक्ष था। उन्होंने सुवर्णपत्र से आच्छादित सुदृढ़ कवच धारण किया, जो सारा का सारा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को सहन करने में समर्थ फौलाद का बना हुआ था।
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