महाभारत विराट पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-16
द्वात्रिंश (32) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
मत्स्य तथा त्रिगर्तदेशीय सेनाओं का परस्पर युद्ध
वैशम्पासनजी कहते हैं- राजन् ! नगर से निकलकर प्रहार करने में कुशल वे मत्स्यदेशीय वीर योद्धा अपनी सेना का व्यूह बनाकर चले और सूर्य के ढलते-ढलते उन्होंने त्रिगर्तों को पकड़ लिया । फिर तो क्रोध में भरकर युद्ध के लिये उन्तत्त हुए वे त्रिगर्त और मत्स्यदेश के महाबली वीर गौओं को ले जाने की इच्छा से एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जना करने लगे। हाथियों पर चढ़कर उन्हें चलाने में कुशल श्रेष्ठ महावतों द्वारा तोमरों और अंकुशों की मार से आगे बढ़ाये हुए भयंकर और मतवाले गजराज दोनों ओर से एक दूसरे पर टूट पड़े। परस्पर शस्त्रों का प्रहार करने वाले हाथी सवारों का वह कोलाहल पूर्ण भयंकर युद्ध रोंगटे खडत्रे कर देने वाला एवं महासंहारकारी था। राजन् ! सूर्य पश्चिम की ओर ढल रहे थे। उस समय पैदल, रथी, हाथीसवार तथा घुड़सवारों के समूह से भरा हुआ वह युद्ध देवासुर संग्राम के समान हो रहा था। एक-दूसरे पर धावा बोलकर आपस में मार-काट मचाने वाले उन सैनिकों के पदाघात से इतनी धूल उड़ी कि कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सेनर की धूल से आच्छादित होकर उड़ते हुए पक्षी भी भूमि पर गिर जाते थे। दोनों ओर से छूटे हुए बाणों द्वारा (आकाश खचाखच भर जाने के कारण) सूर्यदेव का दीखना बंद हो गया था। बाणों के कारण अप्तरिक्ष मानो जुगनुओं से भर गया हो, इस प्रकार चकमक हो रहा था। दाँये-बाँये बाण माने वाले वे विश्वविख्यशत धनुर्धर वीर जब घायल होकर गिरते थे, उस समय उनके सुवर्ण की पीइ वाले धनुष दूसरों के हाथ में चले जाते थे।। रथी रथियों और पैदल पैदलों से भिड़े हुए थे। घुड़़सवार घुड़सवारों से और गजारोही गजारोहियों से लड़ रहे थे। राजन् !वे सब क्रोध में भरकर उस युद्ध मेंएक दूसरे पर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार कर रहे थे; किंतु परिघ के समान प्रचण्ड भुजदण्ड वाले वे शूरवीर परस्पर क्रोध पूर्वक प्रहार करने पर भी समना करने वाले वीरों को पीछे नहीं हटा पाते थे। बात की बात में, कुण्डलों सहित कटे हुए कितने ही मस्तक धूल में लोटने लगे। किसी की नाक बड़ी सुन्दर थी, परन्तु ऊपर का ओठ कट गया था। कोई अलंकारों से अलंकृत था, किंतु उसका केशभाग कटकर उड़ गया था। उस महासंग्राम में बहुत से क्षत्रिय वीरों के शरीर, जो शालवृक्ष की शाखाओं के समान विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट थे, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़े-टुकड़े दिखायी देने लगे। सर्प के शरीर की भाँति सुशोभित चन्दनचर्चित भुजाओं तथा कुण्डलमण्डित मसतकों से पटी हुई रणभूमि अपूर्व शोभा धारण कर रही थी। वहाँ रथियों का रथियों से, घुड़सवारों का घुड़सवारों से और पैदल योद्धाओं कसा पैदलों से घमासान यंद्ध होने लगा। सब ओर रक्त की धारा बह चली और उसमें सन कर धरती की धूल शान्त हो गयी। युद्ध करने वाले वीरों को मूच्र्छा आने लगी। उनमें मर्यादाशून्य भयंकर युद्ध छिड़ गया।
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