महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुमि और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इा समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- तुम्हीं उन्हें संकट से मुक्त कर सकती हो। महादेवि ! पानी में तैरते समय, दुर्गम मार्ग में चलते समय और जंगलों में भटक जरने पर जो तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे मनुष्य क्लेश नहीं पाते। तुम्हीं कीर्ति, श्री, धृति, सिद्धि, लज्जा, विद्या, संतति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा, ज्यात्स्ना, कान्ति, क्षमा और दया हो। तुम पूजित होने पर मनुष्यों के बन्धन, मोह, पुत्रनाश और धननाश का संकट, व्याधि, पृत्यु आर सम्पूर्ण भय नष्टकर देती हो। मैं भी राज्य से भ्रष्ट हूँ, इसलिये तुम्हारी शरण में आया हूँ। ‘कमलदल के समान विशाल नेत्रों पाली देवि ! देवेश्वरी ! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। मेरी रक्षा करो। सत्ये ! हमारे लिये वस्तुतः सत्यस्वरूपा बनो- अपनी महिमा को सत्य कर दिखाओ। ‘शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले दुर्गे ! मुझे शरण दो।’ इस प्रकार स्तुति करने पर देवि दुर्गा ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा राजा के पास आकर यह बात कही। देवी बोली- महाबाहु राजा युधिष्ठिर ! मेरी बात सुनो। समर्थ राजन् ! शीघ्र ही तुम्हें संग्राम में विजय प्रापत होगी। मेरे प्रसाद से कौरवसेना को जीतकर उसका संहार करके तुम निष्कण्टक राज्य करोगे और पुनः इस पृथ्वी का सुख भोगोगे। राजन् ! तुम्हें भाइयों सहित पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होगी। मेरी कृपा से तुम्म्हें सुख और आरोग्य सुलभ होगा। लोक में जो मनुष्य मेरा कीर्तन आर स्तवन करेंगे, वे पाप-रहित होंगे और मैं संतुष्ट होकर उन्हें राज्य, बड़ी आयु, नीरोग शरीर और पुत्र प्रदान करूँगी। राजन् ! जैसे तुमने मेरा स्मरण किया है, इसी प्रकार जो लोग परदेश में रहते समय, नगर में, युद्ध में? शत्रुओं द्वारा संकट प्राप्त होने पर, घने जगलों में, दुर्गम मार्ग में, समुद्र में तथा गहन पर्वत पर भी मेरा स्मरण करेंगे, उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। पाण्डवों ! जो इस उत्तम स्तोत्र को भक्तिभाव से सुनेगा या पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायँगे। मेरे कृपाप्रसाद से विराटनगर में रहते समय तुम सब लोगों को कौरवगण अथवा उस नगर के निवासी मनुष्य नहीं पहचान सकेंगे। शत्रुओं का दमन करने वाले राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा पाण्डवों की रक्षा का भार ले वहीं अनतर्धान हो गयीं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।
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