महाभारत विराट पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-5
सप्तम (7) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
युधिष्ठिर का राजसभा में जाकर विराट से मिलना और वहाँ आदरपूर्वक निवास पाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर पाण्डवों ने परम पवित्र, कल्याणमयी, मंगलस्वरूपा, त्रिभुवनकमनीया गंगा में, जिसके जल का महर्षि और गन्धर्वगण सदा सेवन करते हैं, उतरकर देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया।। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर अग्निहोत्र, जप आर मंगलपाठ करके धर्मराज के दिये हुए वरदान का चिन्तन करते हुए पूर्व दिशा की ओर चले और हाथ जोड़कर धीरे-धीरे धर्मराज का स्मरण करने लगे।
युधिष्ठिर बोले- मेरे पिता प्रजापति धर्म वरदायक देवता हैं। उन्होंने प्रसन्नचित होकर मुझे वर दिया है। मैंने प्यास से पीडि़त हो जल की इच्छा से अपने भाइयों को भेजा था। मेरी प्रेरणा से ही वे एक सरोवर में उतरे।। परंतु उस वन में श्रेष्ठ यक्ष के रूप में आये हुए उन धर्मराज ने मेरे भाइयों को उसी प्रकार धराशायी कर दिया, जैसे वज्रधारी इन्द्र महान् संग्राम में दानवों को मार गिराते हैं। तब मैंने वहाँ जाकर उनके प्रश्नों का उत्तर दे उन वरदायक गुरुरूप पिता को संतुष्ट किया।। उस समय प्रसन्न हो भगवान् धर्म ने बड़े स्नेह से मुझे हृदय से लगाया और वर देने के लिये उद्यत हो मुझसे कहा- ‘पाण्उुनन्दन ! तुम जो कुछ चाहते हो, वह मुझसे माँग लो। मैं तुम्हें वर देने के लिये आकाश में खड़ा हूँ। मेरी ओर देखो।’ तब मैंने अपने वरदायक पिता भगवान् धर्मराज से कहा-‘प्रभो ! मेरी बुद्धि सदा धर्म में ही लगी रहे तथा ये मेरे छोटे भाई जीवित हो जायँ और पहले जैसा रूप, युवावस्था एवं बल प्राप्त क लें।। ‘हम लोगों में इच्छानुसार क्षमा और कीर्ति हो और हम अपने सत्यव्रत को पूर्ण कर लें; यही वर हमें प्राप्त होना चाहिये।’ जैसा कि मैंने बताया, वैसा ही वर उन्होंने दिया। देवेश्वर धर्म ने जैसा कहा है, वह कभी मिथ्या नहीं हो सकता।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर उस समय धर्म का ही बार-बार चिन्तन करने लगे। तब धर्मदेव के प्रसाद से उन्होंने ततकाल अपने अभीष्ट स्वरूप को प्राप्त कर लिया। वे कमण्डलु और पगड़ी धारण किये त्रिदण्डधारी तरूण ब्राह्मण बन गये। उनके शरीर पर मँजीठे के रंग के सुन्दर लाल वस्त्र शोभा पाने लगे तथा मस्तक पर शिखा दिखायी देने लगी। वे हाथ में कुश लिये अद्भुत रूप में दृष्टिगोचर होने लगे। राजन् ! इसी प्रकार उत्तम धर्म के श्रेष्ठ फल की अभिलाषा रखने वाले उन सभी धर्मचारी महातमा पाण्डवों को क्षणभर में उनके अभीष्ट वेश के अनुरूप वस्त्र, आभूषण और माला आदि वस्तुएँ प्राप्त हो गयी।। तदनन्तर वैदूर्य के समान हरी, सुवर्ण के समान पीली (तथा लाल और काली) चैसर की गोटियों सहित पासों को कपड़े में बाँधकर बगल में दबाये हुए राजा युधिष्ठिर सगसे पहले राजा के दरबार में गये। उस समय राजा विराट सभा में बैठे थे। वे बड़े यशस्वी और मत्ज्ञयराष्ट्रके अधिपति थे। राजा युधिष्ठिर भी महान् यशस्वी, कौरववंश की मर्यादा को बढ़ाने वाले तथा महानुभाव (अत्यन्त प्रभावशाली) थे। सब राजे-महाराजे उनका सत्कार करते थे। तीखे विषवाले सर्प की भाँति वे दुर्धर्ष थे। अपने अपूर्व रूप के कारण वे देवता के समान जान पड़ते थे। महामेघमालाओें से आवृत सूर्य तथा राख में छिपी हुई अग्नि के समान उनका तेजस्वी रूप वेषभूषा से आच्छादित था। वे बड़े पराक्रमी थे। उनका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहा था। बादलों से ढके हुए चन्द्रमा की भाँति शोभायमान महानुभाव पाण्डुनन्दन को आते देख राजा विराट की दृष्टि सहसा उनकी ओर आकृष्ट हो गयी। निकट आने पर शीघ्र ही उन्होंने बड़े गौर से उनकी ओर देखा। मन्त्री, ब्राह्मण, सूत-मागध आदि, वैश्यगण तथा अन्य जो कोई भी सभासद् उनके दायें-बायें सब ओर बैैठे थे, उन सबसे राजा ने पूछा - ‘ये कौन है ? जो पहले-पहल यहाँ पधारे हैं, ये तो किसी राजा की भाँति मेरी सभा को निहार रहे हैं।
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