महाभारत शल्य पर्व अध्याय 37 श्लोक 21-45

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सप्तत्रिंश (37) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 21-45 का हिन्दी अनुवाद


उस वृक्ष के आस-पास यक्ष, विद्याधर, अमित तेजस्वी राक्षस, अनन्त बलशाली पिशाच तथा सिद्धगण सहस्त्रों की संख्या में निवास करते थे । वे सब के सब अन्न छोड़ कर व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय समय पर उस वृक्ष का ही फल खाया करते थे । पुरुषश्रेष्ठ ! वे उन स्वीकृत नियमों के अनुसार पृथक्-पृथक् विचरते हुए मनुष्यों से अदृश्य रह कर घूमते थे। नरव्याघ्र ! इस प्रकार वह वनस्पति इस विश्व में विख्यात था । वह वृक्ष सरस्वती का लोक विख्यात पावन तीर्थ है। यदु श्रेष्ठ बलराम उस तीर्थ में दूध देने वाली गौओं का दान करके तांबे और लोहे के बर्तन तथा नाना प्रकार के वस्त्र भी ब्राह्मणों को दिये। ब्राह्मणों का पूजन करके वे स्वयं भी तपस्ती मुनियों द्वारा पूजित हुए । राजन् ! वहां से हलधर बलभद्रजी पवित्र द्वैतवन में आये और वहां के नाना वेशधारी मुनियों का दर्शन करके जल में गोता लगा कर उन्होंने ब्राह्मणों का पूजन किया । राजन् ! इसी प्रकार विप्रवृन्द को प्रचुर भोग सामग्री अर्पित करके फिर बलरामजी सरस्वती के दक्षिण तट पर हो कर यात्रा करने लगे । महाराज ! इस प्रकार थोड़ी ही दूर जाकर महाबाहु, महायशस्वी धर्मात्मा भगवान बलराम नागधन्वा नामक तीर्थ में पहुंच गये, जहां महातेजस्वी नागराज वासुकि का बहुसंख्यक सर्पो से घिरा हुआ निवास स्थान है। वहां सदा चैदह हजार ऋषि निवास करते हैं । वहीं देवताओं ने आकर सर्पो में श्रेष्ठ वासुकि को समस्त सर्पो के राजा के पद पर विधिपूर्वक अभिषिक्त किया था । पौरव ! वहां किसी को सर्पो से भय नहीं होता। उस तीर्थ में भी बलरामजी ब्राह्मणों को विधिपूर्वक ढेर के ढेर रत्न देकर पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहां पग-पग पर अनेक प्रकार के प्रसिद्ध तीर्थ प्रकट हुए हैं। उनकी संख्या लगभग एक लाख है । उन तीर्थो में स्नान करके उन्होंने ऋषियों के बताये अनुसार व्रत-उपवास आदि नियमों का पालन किया। फिर सब प्रकार के दान करके तीर्थ निवासी मुनियों को मस्तक नवा कर उनके बताये हुए मार्ग से वे पुनः उस स्थान की ओर चल दिये, जहां सरस्वती हवा की मारी हुई वर्षा के समान पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी हैं । राजन् ! नैमिषारण्य निवासी महात्मा मुनियों के दर्शन के लिये पूर्व दिशा की ओर लौटी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का दर्शन करके श्वेत-चन्दन चर्चित हलधारी बलराम आश्चर्य चकित हो उठे । जनमेजय ने पूछा-यजुर्वेद के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ विप्रवर ! मैं आपके मुंह से यह सुनना चाहता हूं कि सरस्वती नदी किस कारण से पीछे लौट कर पूर्वाभिमुख बहने लगी ? क्या कारण था कि वहां यदुनन्दन बलरामजी को भी आश्चर्य हुआ ? सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती किस कारण से और किस प्रकार पूर्व दिशा की ओर लौटी थी ? वैशम्पायनजी ने कहा- राजन् ! पूर्व काल के सत्य युग की बात है, वहां बारह वर्षो में पूर्ण होने वाले एक महान् यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया गया था। उस सत्र में नैमिषारण्य निवासी तपस्वी मुनि तथा अन्य बहुत से ऋषि पधारे थे । नैमिषारण्य वासियों के उस द्वादश वर्षीय यज्ञ में वे महाभाग ऋषि दीर्ध काल तक रहे। जब वह यज्ञ समाप्त हो गया तब बहुत से महर्षि तीर्थ सेवन के लिये वहां आये । प्रजानाथ ! ऋषियों की संख्या अधिक होने के कारण सरस्वती के दक्षिण तट पर जितने तीर्थ थे, वे सभी नगरों के समान प्रतीत होने लगे । पुरुषसिंह ! तीर्थ सेवन के लोभ से वे ब्रह्मर्षिगण समन्त पन्चक तीर्थ तक सरस्वती नदी के तट पर ठहर गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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