महाभारत शल्य पर्व अध्याय 37 श्लोक 46-67
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
वहां होम करते हुए पवित्रात्मा मुनियों के अत्यन्त गम्भीर स्वर से किये जाने वाले स्वाध्याय के शब्द से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठी थीं । चारों ओर प्रकाशित हुए उन महात्माओं द्वारा किये जाने वाले यज्ञ से सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती की बड़ी शोभा हो रही थी । महाराज ! सरस्वती के उस निकटवर्ती तट पर सुप्रसिद्ध तपस्वी वालखिल्य, अश्मकुटट, दन्तोलूखली प्रसंख्यान, हवा पीकर रहने वाले, जलपान पर ही निर्वाह करने वाले, पत्तों का ही आहार करने वाले, भांति-भांति के नियमों में संलग्न तथा वेदी पर शयन करने वाले तपस्वी-मुनि विराजमान थे। वे सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती की उसी प्रकार शोभा बढ़ा रहे थे, जैसे देवता लोग गंगाजी की । सत्रयाग में सम्मिलित हुए सैकड़ों महान् व्रतधारी ऋषि वहां आये थे; परंतु उन्होंने सरस्वती के तट पर अपने रहने के लिये स्थान नहीं देखा । तब उन्होंने यज्ञोपवीत से उस तीर्थ का निर्माण करके वहां अग्निहोत्र-सम्बन्धी आहुतियां दी और नाना प्रकार के कर्मो का अनुष्ठान किया । राजेन्द्र ! उस समय उस ऋषि-समूह को निराश और चिन्तित जान सरस्वती ने उनकी अभीष्ट-सिद्धि के लिये उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । जनमेजय ! तत्पश्चात् बहुत से कुन्जों का निमार्ण करती हुई सरस्वती पीछे लौट पड़ी; क्योंकि उन पुण्यतपस्वी ऋषियों पर उन के हृदय में करुणा का संचार हो आया था । राजेन्द्र ! उनके लिये लौट कर सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती पुनः पश्चिम की ओर मुड़ कर बहने लगीं । राजन् ! उस महानदी ने यह सोच लिया था कि मैं इन ऋषियों के आगमन को सफल बनाकर पुनः पश्चिम मार्ग से ही लौट जाऊंगी। यह सोच कर ही उसने वह महान् अदभुत कर्म किया । नरेश्वर ! इस प्रकार वह कुन्ज नैमिषीय नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुरुश्रेष्ठ ! तुम भी कुरुक्षेत्र में महान् कर्म करो । वहां बहुत से कुन्जों तथा लौटी हुई सरस्वती का दर्शन करके महात्मा बलरामजी को बड़ा विस्मय हुआ । यदुनन्दन बलराम ने वहां विधिपूर्वक स्नान और आव्रमन करके ब्राह्मणों को धन और भांति-भांति के बर्तन दान किये। राजन् ! फिर उन्हें नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ देकर द्विजातियों द्वारा पूजित होते हुए बलरामजी वहां से चल दिये । तदनन्तर हलायुध बलदेवजी सप्तसारस्वत नामक तीर्थ में आये, जो सरस्वती के तीर्थो में सबसे श्रेष्ठ हैं। वहां अनेकानेक ब्राह्मणों के समुदाय निवास करते थे। वेर, इंगुद, काश्मर्य ( गम्भारी ), पाकर, पीपल, बहेड़े, कंकोल, पलाश, करीर, पीलु, करूष, विल्व, अमड़ा, अतिमुक्त, पारिजात तथा
1 पत्थर से फोड़े हुए फल का भोजन करने वाले।
2 दांत से ही ओखली का काम लेने वाले अर्थात् ओखली में कूट कर नहीं, दांतो से ही चबा कर खाने वाले।
3 गिने हुए फल खाने वाले।सरस्वती के तट पर उगे हुए अन्य नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वह तीर्थ देखने में कमनीय और मन को मोह लेने वाला है। वहां केले के बहुत से बगीचे हैं। उस तीर्थ में वायु, जल, फल और पत्ते चबाकर रहने वाले, दांतों से ही ओखली का काम लेने वाले और पत्थर से फोड़े हुए फल खाने वाले बहुतेरे वानप्रस्थ मुनि भरे हुए थे। वहां वेदों के स्वाध्याय की गम्भीर ध्वनि गूंज रही थी। मृगों के सैकड़ों यूथ सब ओर फैले हुए थे। हिंसा रहित धर्म परायण मनुष्य उस तीर्थ का अधिक सेवन करते थे। वहीं सिद्ध महामुनि मंकणक ने बड़ी भारी तपस्या की थी ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में बलदेवजी की तार्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक सैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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