महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 109 श्लोक 1-13
नवाधिकशततम (109) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सत्य-असत्य का विवेचन, धर्म का लक्षण तथा व्यावहारिक नीति का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! धर्म मे स्थित रहने की इच्छा वाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वान्! मैं इस बात को जानना चाहता हूँ। भरत श्रेष्ठ! आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये। राजन्! सत्य और असत्य ये दोनों सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है; किन्तु धर्म पर विश्वास करने वाला मनुष्य इन दोनों में से किसका आचरण करे। क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ? भीष्मजी ने कहा- भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढकर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ। जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय ( किसी के जीवन को संकट में डाल दे); ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। जिसमें सत्य स्थिर न हों, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही मारा जाता है। सत्य और असत्य का पालन करने वाला पुरूष ही धर्मज्ञ माना जाता है। जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभाव का है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति महान् पुण्य प्राप्त कर लेता हैं[१] ।कैसा आश्चर्य है कि धर्मं की इच्छा रखने वाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्मं के फल को प्राप्त हो जाता है। (कर्णपर्व अध्याय) और गंगा के तट पर रहने वाले एक उल्लू की भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है। युधिष्ठिर ! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्मं के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्मं के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे? प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्मं का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्मं है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं। धर्मं का नाम ’धर्मं’ इसलिये पड़ा हैं कि वह सबको धारण करता हैं-अधोगति में जाने से बचाता है और जीवन की रक्षा करता है। धर्मं ने ही सारी प्रजा को धारण कर रखा हैं; अतः जिससे धारण और पोषण सिद्ध होता हो, वही धर्मं है; ऐसा धर्मंवेत्ताओं का निश्चय हैं। प्राणियों की हिंसा न हो, इसके लिये धर्मं का उपदेश किया गया है; अतः जो अहिंसा से युक्त हो, वही धर्मं है, ऐसा धर्मांत्माओं का निश्चय हैं। राजन्! कुरूश्रेष्ठ! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, तपस्या, दान, मन और इन्द्रियों का संयम, विशुद्ध बुद्धि, किसी के दोष न देखना, किसी से डाह और जलन न रखना तथा उत्तम शीलस्वभाव का परिचय देना-ये धर्मं है, देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजी ने इन्हीं को सनातन धर्मं बताया है। जो मनुष्य इस सनातन धर्मं मे स्थित है, उसे ही कल्याण का दर्शन होता हैं। वेद में जिसका प्रतिपादन किया गया है, वही धर्मं है, यह एक श्रेणी के विद्वानों का मत है; किंतु दूसरे लोग धर्मं का यह लक्षण नहीं स्वीकार करते हैं। हम किसी भी वेद में सभी बातों का विधान नही हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखिये कर्णपर्व अध्याय 69 श्लोक 38 से 45 तक।1.गंगा के तट पर किसी सर्पिणी ने सहस्त्रों अण्डे देकर रख दिये थे। उन अण्डों को एक उल्लू रात में फोड फोडकर नष्ट कर दिया। इससे वह महान् पुण्य का भागी हुआ; अन्यथा उन अण्डों से हजारों विषैले सर्प पैदा होकर कितने ही लोगों का विनाश कर डालते है।