महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 77-90

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एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 77-90 का हिन्दी अनुवाद

‘जो अपने पद से गिरा दिये जाने के कारण असंतुष्‍ट हों, अपमानित किये गये हों, जो स्‍वयं राजा से पुरस्‍कृत होकर दूसरों के द्वारा कलंक लगाये जाने के कारण उस आदर से वंचित कर दिये गये हों, जो क्षीण, लोभी, क्रोधी, भयभीत और धोखें में डाले गये हों, जो महत्‍वपूर्ण पद पाना चाहते हों, जिन्‍हें सताया गया हो, जो किसी राजा पर आने वाले संकट समूह की प्रतिक्षा कर रहे हों, छिपे रहते हों और मन में कपटभाव रखते हों, वे सभी सेवक शत्रुओं का काम बनाने वाले होते हैं। जब मैं अपने पद से भ्रष्‍ट और अपमानित हो गया, तब पुन: आप मुझ पर कैसे विश्‍वास कर सकेंगे ? अथवा मैं ही कैसे आपके पास रह सकूँगा ? ‘आपने योग्‍य समझकर मुझे अपनाया और मन्‍त्री के पद पर बिठाकर मेरी प्रतीक्षा ली। इसके बाद अपनी की हुई प्रतिज्ञा को तोड़कर मेरा अपमान किया। ‘पहले भरी सभा में शीलवान कहकर जिसका परिचय दिया गया हो, प्रतिज्ञा की रक्षा करने वाले पुरुष को उसका दोष नहीं बताना चाहिये। ‘जब मैं इस प्रकार यहां अपमानित हो गया तो अब आप पर मेरा विश्‍वास न होगा और आप भी मुझ पर विश्‍वास नहीं कर सकेंगे। ऐसी दशा में आपसे मुझे सदा भय बना रहेगा। ‘आप मुझ पर संदेह करेंगे और मैं आपसे डरता रहूंगा, इधर पराये दोष ढूंढने वाले तनिक भी स्‍नेह नहीं है तथा इन्‍हें संतुष्‍ट रखना भी मेरे लिये अत्‍यन्‍त कठिन है। साथ ही यह मन्‍त्री का कर्म भी अनेक प्रकार के छल-कपट से भरा हुआ है। ‘प्रेम का बन्‍धन बड़ी कठिनाई से टूटता है, पर जब वह एक बार टूट जाता है, तब बड़ी कठिनाई से जुट पाता है। जो प्रेम बारंबार टूटता और जुड़ता रहता है, उसमें स्‍नेह नहीं होता। ‘ऐसा मनुष्‍य कोई एक ही होता है, जो अपने या दूसरे के हित में रत न रहकर स्‍वामी के ही हित में संलग्‍न दिखायी देता हो; क्‍योंकि अपने कार्य की अपेक्षा रखकर स्‍वार्थ साधन उदेश्‍य लेकर प्रेम करने वाले तो बहुत होते हैं, परंतु शुद्धभाव से स्‍नेह रखने वाले मनुष्‍य अत्‍यन्‍त दुर्लभ हैं। ‘योग्‍य मनुष्‍य को पहचानना राजाओं के लिये अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है; क्‍योंकि उनका चित चंचल होता है, सैकड़ों में से कोई एक ऐसा मिलता है, जो सब प्रकार से सुयोग्‍य होता हुआ भी संदेह से परे हो। ‘मनुष्‍य के उत्‍कर्ष और अपकर्ष (उन्‍नति और अवनति) अकस्‍मात होते हैं, किसी का भला करके बुरा करना और उसे महत्‍व देकर नीचे गिराना, यह सब ओछी बुद्धि का परिणाम है’। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और युक्तियों से युक्‍त सान्‍त्‍वनापूर्ण वचन कहकर सियार ने बाघ राजा को प्रसन्‍न कर लिया और उसकी अनुम‍ती लेकर वह वन में चला गया। वह बड़ा बुद्धिमान था; अत: शेर की अनुनय-विनय न मानकर मृत्‍युपर्यन्‍त निराहार रहने का व्रत ले एक स्‍थान पर बैठ गया और अन्‍त में शरीर त्‍यागकर स्‍वर्गधाम में जा पहुँचा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में व्‍याघ्र और गीदड़ का संवाद विषयक एक सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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