महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-21
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द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- एक तपस्वी उँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य
युधिष्ठिर ने पूछा- समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ पितामह ! राजा को क्या करना चाहिये? क्या करने से वह सुखी हो सकता है ? यह मुझे यथार्थ रुप से बताइये? भीष्मजी ने कहा- नरेश्वर ! राजा का जो कर्तव्य है और जो कुछ करके वह सुखी हो सकता है, उस कार्य का निश्चय करके अब मैं तुम्हें बतलाता हूँ, उसे सुनो। युधिष्ठिर ! हमने एक ऊंट का जो महान वृतान्त सुन रखा है, उसे तुम सुनो। राजा को वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये। प्राजापत्ययुग (सत्ययुग) में एक महान उँट था। उसको पूर्वजन्म की बातों का स्मरण था। उसने कठोर व्रत के पालन का नियम लेकर वन में बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। उस तपस्या के अन्त में पितामह भगवान ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस से वर मांगने के लिये कहा। उँट बोला- भगवन ! आपकी कृपा से मेरी यह गर्दन बहुत बड़ी हो जाय, जिससे जब मैं चरने के लिये जाउँ तो सौ योजन से अधिक दूर तक की खाद्य वस्तुएं ग्रहण कर सकूं। वरदायक महात्मा ब्रह्माजी ने ‘एवमस्तु’ कहकर उसे मुँहमांगा वर दे दिया। वह उत्तम वर पाकर ऊंट अपने वन में चल गया। उस खोटी बुद्धि वाले ऊंट ने वरदान पाकर कहीं आने-जाने में आलस्य कर लिया। वह दुरात्मा काल से मोहित कहकर चरने के लिये कहीं जाना ही नहीं चाहता था। एक समय की बात है, वह अपनी सौ योजन लंबी गर्दन फैलाकर चर रहा था, उसका मन चरने से कभी थकता ही नहीं था। इतने में बड़े जोर से हवा चलने लगी। वह पशु किसी गुफा में अपनी गर्दन डालकर चर रहा था, इसी समय सारे जगत को जल से आप्लावित करती हुई बड़ी भारी वर्षा होने लगी। वर्षा आरम्भ होने पर भूख और थकावट से कष्ट पाता हुआ एक गीदड़ अपनी स्त्री के साथ शीघ्र ही उस गुहा में आ घुसा। वह जल से पीड़ित था, सर्दी से उसके सारे अंग अकड़ गये थे। भरतश्रेष्ठ ! वह मांसजीवी गीदड़ अत्यन्त भूख के कारण कष्ट पा रहा था, अत: उसने ऊंट की गर्दन का मांस काट-काटकर खाना आरम्भ कर दिया। जब उस पशु को यह मालूम हुआ कि उसकी गर्दन खायी जा रही है, तब वह अत्यन्त दुखी हो उसे समेटने का प्रयत्न करने लगा। वह पशु जब तक अपनी गर्दन को ऊपर-नीचे समेटने का यत्न करता रहा, तब तक ही स्त्री सहित सियार ने उसे काटकर खा लिया। इस प्रकार ऊंट को मारकर खा जाने के पश्चात जब आंधी और वर्षा बंद हो गयी, तब वह गीदड़ गुफा के मुहाने से निकल गया। इस तरह उस मूर्ख ऊंट की मृत्यु हो गयी। देखो, उसके आलस्य के क्रम से कितना महान दोष प्राप्त हो गया। इसलिये तुम्हें तो ऐसे आलस्य को त्याग करके इन्द्रियों को वश में रखते हुए बुद्धिपूर्वक बर्ताव करना उचित हैं। मनुजी का कथन है कि ‘विजय का मूल बुद्धि ही है’। भारत ! बुद्धिबल से किये गये कार्य श्रेष्ठ हैं। बाहुबल से किये जाने वाले कार्य मध्यम हैं। जांघ अर्थात पैर के बल से किये गये कार्य जघन्य (अधम कोटि के) हैं तथा मस्तक से भार ढोने का सबसे निम्न श्रेणी का हैं। जो जितेन्द्रिय और कार्यदक्ष हैं, उसी का राज्य स्थिर रहता हैं। मनुजी का कथन है कि संकट में पड़े हुए राजा की विजय का मूल बुद्धि-बल ही है। निष्पाप युधिष्ठिर ! जो गुप्त मन्त्रणा सुनता हैं, जिसके सहायक अच्छे हैं तथा जो भलीभांति जान-बूझकर कोई कार्य करता है, उसके पास ही धन स्थिर रहता है। सहायकों से सम्पन्न नरेश ही समूची पृथ्वी का शासन कर सकता है। महेन्द्र के समान प्रभावशाली नरेश ! पूर्वकाल में राज्य-संचालन की विधि को जानने वाले सत्पुरुषों ने यह बात कही थी। मैंने भी शास्त्रीय दृष्टि के अनुसार तुम्हें यह बात बतायी है। राजन ! इसे अच्छी तरह समझकर इसी के अनुसार चलो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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