महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 12-25
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विंशत्यधिकशततम(120) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पर्वत के समान उंचा सिर करके अविचलभाव से बैठे हुए धनी नरेशों को नष्ट करे। उनको जताये बिना ही उनकी छाया का आश्रय ले अर्थात् उनके सरदारों से मिलकर उनमें फूट डाल दे और गुप्तरुप से अवसर देखकर उनके साथ युद्ध छेड़ दे। जैसे मोर आधी रात के समय एकान्त स्थान में छिपा रहता है, उसी प्रकार राजा वर्षाकाल में शत्रुओं पर चढ़ाई न करके अदृश्यभाव से ही महल में रहे। मोर के ही गुण को अपनाकर स्त्रियों से अवलक्षित रहकर विचरे। अपने कवच को कभी न उतारे। स्वंय ही शरीर की रक्षा करे।घूमने-फिरने के स्थानों पर शत्रुओं द्वारा जो जाल बिछाये गये हों, उनका निवारण करे।राजा सुयोग समझे तो जहां शत्रुओं का जाल बिछा हो, वहां भी अपने-आपको ले जाय। यदि संकट की सम्भावना हो तो गहन वन में छिप जाय तथा जो कुटिल चाल चलनेवाले हों, उन क्रोध में भरे हुए शत्रुओं को अत्यन्त विषैले सर्पो के समान समझकर मार डाले। शत्रु की सेना की पांख काट डाले-उसे दूर्बल कर दे, श्रेष्ठ पुरुषों को अपने निकट बसावे। मोर के समान स्वेच्छानुसार उतम कार्य करें-जैसे मोर अपने पंख फैलाता है, उसी प्रकार अपने पक्ष (सेना और सहायकों) का विस्तार करें।
सबसे बुद्धि-सद्विचार ग्रहण करे और जैसे टिड्डियों का दल जंगल में जहां गिरता हैं, वहां वृक्षों पर पते तक नहीं छोड़ता, उसी प्रकार शत्रुओं पर आक्रमण करके उनका सर्वस्व नष्ट कर दे।इसी प्रकार बुद्धिमान् राजा अपने स्थान की रक्षा करनेवाले मोर के समान अपने राज्य का भलीभांति पालन करें तथा उसी नीति का आश्रय ले, जो अपनी उन्नति में सहायक हो। केवल अपनी बुद्धि से मन को वश में किया जाता है। मन्त्री आदि दूसरों की बुद्धि के सहयोग से कर्तव्य का निश्चय किया जाताहैं और शास्त्रीय बुद्धि से आत्मगुण की प्राप्ति होती हैं। यही शास्त्र का प्रयोजन हैं। राजा विधुर वाणी द्वारा समझा-बुझाकर अपने प्रति दूसरे का विश्वास उत्पन्न करे। अपनी शक्ति का भी प्रदर्शन करे तथा अपने विचार और बुद्धि से कर्तव्य का निश्चय करे। राजा में सब को समझा-बुझाकर युक्ति से काम निकालने की बुद्धि होनी चाहिये। वह विद्वान होने के साथ ही लोगों की कर्तव्य की प्ररेणा दे और अकर्तव्य की ओर जाने से रोक अथवा जिसकी बुद्धि गूढ़ या गम्भीर है, उस धीर पुरुष को उपदेश देने की आवश्यकता ही क्या है? वह बुद्धिमान् राजा बुद्धि में बृहस्पति के समान होकर भी किसी कारणवश यदि निम्न श्रेणी की बात कह डाले तो उसे चाहिये कि जैसे तपाया हुआ लोहा पानी में डालने से शान्त हो जाता है, उसी तरह अपने शान्त स्वभाव को स्वीकार कर ले। राजा अपने तथा दूसरे को भी शास्त्र में बताये हुए समस्त कर्मो में ही लगावे। कार्य साधन के उपाय को जाननेवाला राजा अपने कार्यो में कोमल-स्वभाव, विद्वान तथा शूरवीर मनुष्य को तथा अन्य जो अधिक बलशाली व्यक्ति हों, उनको नियुक्त करे। जैसे वाणी के विस्त्तृत तार सातों स्वरों का अनुसरण करते हैं,उसी प्रकार अपने कर्मचारियों को योग्यता-नुसार कर्मो में संलग्न देख उन सबके अनुकुल व्यवहार करे। राजा को चाहिये कि सबको प्रिय करे, किंतु धर्म में बाधा न आने दे।प्रजागण को ‘यह मेरा ही प्रियगण है ‘ ऐसा समझनेवाला राजा पर्वत के समान अविचल बना रहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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