महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 26-40
विंशत्यधिकशततम(120) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
जैसे सूर्य अपनी विस्तृत किरणों का आश्रय ले सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार राजा प्रिय और अप्रिय को समान समझकर सुदृढ़ उद्योग का अवलम्बन करके धर्म की रक्षा करे। जो लोग कुल, स्वभाव और देश के धर्म को जानते हों, मधुरभाषी हों, युवावस्था में जिनका जीवन निष्कलंक रहा हो, जो हितसाधन में तत्पर और घबराहट से रहित हों, जिनमें लोभ का अभाव हों, जो शिक्षित, जितेन्द्रीय, धर्मनिष्ठ तथा धर्म एवं अर्थ की रक्षा करनेवाले हों, उन्हीं को राजा अपने समस्त कार्यो में लगावे। इस प्रकार राजा सदा सावधान रहकर राज्य के प्रत्येक कार्य का आरम्भ और समाप्ति करे। मन में संतोष रखे और गुप्तचरों की सहायता से राष्ट्र की सारी बातें जानता रहे। जिसका हर्ष और क्रोध कभी निष्फल नहीं होता, जो स्वंय ही सारे कार्यो की देखभाल करता है तथा आत्मविश्वास ही जिसका खजाना हो, उस राजा के लिये यह वसुन्धुरा (पृथ्वी) ही धन देनेवाली बन जाती है। जिसका अनुग्रह सबपर प्रकट है तथा जिसका निग्रह (दण्ड देना) भी यर्थाथ कारण से होता है, जो अपनी और अपने राज्य की सुरक्षा करता है, वही राजा राजधर्म का ज्ञाता है। जैसे सूर्य उदित होकर प्रतिदिन अपनी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करते (या देखते) हैं, उसी प्रकार राजा सदा अपनी दृष्टि से सम्पूर्ण राष्ट्र का निरीक्षण करे।
गुप्तचरों को बारंबार भेजकर राज्य के समाचार जाने तथा स्वयं अपनी बुद्धि के द्वारा भी सोच-विचार कर कार्य करे। बुद्धिमान राजा समय पड़ने पर ही प्रजा से धन ले। अपनी अर्थ-संग्रह की नीति किसी के सम्मुख प्रकट न करे। जैसे बुद्धिमान मनुष्य गाय की रक्षा करते हुए भी उससे दुध दुहता है, उसी प्रकार राजा सदा पृथ्वी का पालन करते हुए ही उससे धन का दोहन करे। जैसे मधुमक्खी क्रमश: अनेक फूलों से रस का संचय करके शहद तैयार करती है, उसी प्रकार राजा समस्त प्रजाजनों से थोड़ा-थोड़ा द्रव्य लेकर उसका संचय करे। जो धन की राज्य की सुरक्षा करने से बचे, उसी को धर्म और उपभोग के कार्य में खर्च करना चाहिये। शास्त्रज्ञ और मनस्वी राजा को कोषागार के संचित धन से द्रव्य लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिये। थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्कार न करे। शत्रु शक्तिहीन हो तो भी उसकी अवहेलना न करे। बुद्धि से अपने स्परुप और अवस्था को समझे तथा बुद्धिहीनों पर कभी विश्वास न करें। धारणाशक्ति, चतुरता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश-काल की परिस्थिति से असावधान न रहना-ये आठ गुण थोड़े या अधिक धन को बढ़ाने के मुख्य साधन हैं अर्थात् धनरुपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये ईधन हैं। थोड़ी-सी भी आग यदि घीसे सिंच जाय तो बढ़कर बहुत बड़ी हो जाती है। एक ही छोटे-से बीज को बो देने पर उससे सहस्त्रों बीज पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार महान् आय-व्यय के विषय में विचार करके थोड़े-से भी धन का अनादर न करे। शत्रु बालक, जवान अथवा बूढ़ा ही क्यों न हो, सदा सावधान न रहनेवाले मनुष्य का नाश कर डालता है। दूसरा कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकुल समय का सहयोग पाकर राजा की जड़ उखाड़ सकता है। इसीलिये जो समय को जानता है, वही समस्त राजाओं में श्रेष्ठ हैं। द्वेष रखनेवाला शत्रु दुर्बल हो या बलवान्, राजा की कीर्ति नष्ट कर देता है, उसके धर्म में बाधा पहुंचाता है तथा धनोपार्जन में उसकी बढ़ी हुई शक्ति का विनाश कर डालता है; इसलिये मन को वश में रखनेवाला राजा शत्रु ओर से लापरवाह न रहे ।
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