महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 88-102
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एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
विश्वामित्र बोले – चाण्डाल! मैं इसे मानता हूं कि तुमसे दान लेने और इस अभक्ष्य वस्तु को खाने में दोष है फिर भी जहां न खाने से प्राण जाने की सम्भावना हो, वहां के लिये शास्त्रों में सदा ही अपवाद वचन मिलते हैं। जिससे हिंसा और असत्य का तो दोष है ही नहीं, लेशमात्र निन्दारूप दोष है। प्राण जाने के अवसरों पर भी जो अभक्ष्य–भक्षण का निषेध ही करने वाले वचन हैं, वे गुरूतर अथवा आदरणीय नहीं हैं। चाण्डाल ने कहा– द्विजेन्द्र! यदि इस अभक्ष्य वस्तु-को खाने में आपके लिये यह प्राणरक्षारूपी हेतु ही प्रधान है तब तो आपके मत में न वेद प्रमाण है और न श्रेष्ठ पुरूषों का आचार–धर्म ही । अत: मैं आपके लिये भक्ष्य वस्तु के अभक्षण में अथवा अभक्ष्य वस्तु के भक्षण में कोई दोष नहीं देख रहा हूं, जैसा कि यहां आपका इस मांस के लिये यह महान् आग्रह देखा जाता है। विश्वामित्र बोले– अखाघ वस्तु खाने वाले को ब्रह्महत्या आदि के समान महान् पातक लगता हो, ऐसा कोई शास्त्रीय वचन देखने में नहीं आता । हां, शराब पीकर ब्रह्मण पतित हो जाता है, ऐसा शास्त्रवाक्य स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है; अत: वह सुरापान अवश्य त्याज्य है। जैसे दुसरे–दूसरे कर्म निषिद्ध हैं, वैसा ही अभक्ष्य–भक्षण भी है। आपत्ति के समय एक बार किये हुए किसी सामान्य पाप से किसी के आजीवन किये हुए पुण्य कर्म का नाश नहीं होता। चाण्डाल ने कहा– जो अयोग्य स्थान से, अनुचित कर्म से तथा निदिन्त पुरूष से कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है, उस विद्धान् को उसका सदाचार ही वैसा करने से रोकता है (अत: आपको तो ज्ञानी और धर्मात्मा होने के कारण स्वयं ही ऐसे निन्घ कर्म से दूर रहना चाहिये); परंतु जो बारंबार अत्यन्त आग्रह करके कुत्ते का मांस ग्रहण कर रहा है, उसी को इसका दण्ड भी सहन करना चाहिये (मेरा इसमें कोई दोष नहीं है)। भीष्म जी कहते हैं– युधिष्ठिर! ऐसा कहकर चाण्डाल मुनि को मना करने के कार्य से निवृत हो गया। विश्वामित्र तो उसे लेने का निश्चय कर चुके थे; अत: कुत्ते की जांघ ले ही गये। जीवित रहने की इच्छा वाले उन महामुनिने कुत्ते के शरीर के उस एक भाग को ग्रहण कर लिया और उसे वन में ले जाकर पत्नी सहित खाने का विचार किया। इतने ही में उनके मन में यह विचार उठा कि मैं कुत्ते की जांघ के इस मांस को विधिपुर्वक पहले देवताओं को अर्पण करूंगा और उन्हें संतुष्ट करके फिर अपनी इच्छानुसार उसे खाऊंगा। ऐसा सोचकर मुनि ने वेदोक्त विधि से अग्नि की स्थापना करके इन्द्र और अग्निदेवता के उद्देश्य से स्वयं ही चरू पकाकर तैयार किया। भरतनन्दन! फिर उन्होनें देवकर्म और पितृकर्म आरम्भ किया। इन्द्र आदि देवताओं का आवाहन करके उनके लिये क्रमश: विधिपूर्वक पृथक्–पृथक् भाग अर्पित किया। इसी समय इन्द्र ने समस्त प्रजा को जीवनदान देते हुए बड़ी भारी वर्षा की और अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। भगवान विश्वामित्र भी दीर्घकाल तक निराहर व्रत एवं तपस्या करके अपने सारे पाप दग्ध कर चुके थे; अत: उन्हें अत्यन्त अद्भुत सिद्धि प्राप्त हुई। उन द्विजश्रेष्ठ मुनि ने वह कर्म समाप्त करके उस हविष्य का आस्वादन किये बिना ही देवताओं और पितरों को संतुष्ट कर दिया और उन्हीं की कृपा से पवित्र भोजन प्राप्त करके उसके द्वारा जीवन की रक्षा की। राजन्! इस प्रकार संकट में पड़कर जीवन की रक्षा चाहने वाले विद्वान पुरूष को दीनचित न होकर कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिये और सभी उपायों से अपने आपका आपत्काल में परिस्थिति से उद्धार करना चाहिये। इस बुद्धि का सहारा लेकर सदा जीवित रहने का प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि जीवित रहने वाला पुरूष पुण्य करने का अवसर पाता और कल्याण का भागी होता है। अत: कुन्तीनन्दन! अपने मन को वश में रखने वाले विद्वान पुरूष को चाहिये कि वह इस जगत में धर्म और अधर्म का निर्णय करने के लिये अपनी ही विशुद्ध बुद्धि का आश्रय लेकर यथायोग्य बर्ताव करे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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