महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 142 श्लोक 25-38

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द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 25-38 का हिन्दी अनुवाद

वत्‍स युधिष्ठिर! मेरी ओर तो देखो, मैंने क्‍या किया है। भूमण्‍डल का राज्‍य पाने की इच्‍छा वाले क्षत्रिय राजाओं के साथ मैंने वही बर्ताव किया है, जिससे वे संसारबंधन से मुक्‍त हो जाय (अर्थात् उन सबको मैंने युद्ध में मारकर स्‍वर्गलोक भेज दिया )। यदयपि मेरे इस कार्य का दूसरे लोग अनुमोदन नहीं करते थे- मुझे क्रुर और हिंसक कहकर मेरी निंदा करते थे ( तो भी मैंने किसी की परवा न करके अपने कर्तव्‍य का पालन किया, इसी प्रकार तुम अपने कर्तव्‍यपथ पर दृढ़तापूर्वक डटे रहे)। बकरा, घोड़ा और क्षत्रिय– इन तीनों को ब्रह्माजी ने एकसा बनाया है। इनके द्वारा समस्‍त प्राणियों की बारंबार कोई–न-कोई जीवनयात्रा सिद्ध होती रहती है। अवध्‍य मनुष्‍य का वध करने में जो दोष माना गया है, वही वध्‍य का वध न करने में भी है। वह दोष ही अकर्तव्‍य की वह मर्यादा (सीमा) है, जिसका क्षत्रिय राजा को परित्‍याग करना चाहिये । अत: तीक्ष्ण स्‍वभाव वाला राजा ही प्रजा को अपने-अपने धर्म में स्‍थापित कर सकता है; अन्‍यथा प्रजावर्ग के सब लोग भेड़ियों के समान एक दूसरे को लूट–खसोटकर खाते हुए स्‍वच्‍छंद विचरने लगे। जिसके राज्‍य में डाकुओं के दल जल से मछलियों को पकड़ने वाले बगुले के समान पराये धन का अपहरण करते हैं, वह राजा निश्‍चय ही क्षत्रियकुल का कलंक है। राजन! उत्‍तम कुल में उत्‍पन्‍न तथा वेदविद्या से सम्‍पन्‍न पुरूषों को मन्त्री बनाकर प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए तुम इस पृथ्‍वी का शासन करो। जो राजा सत्‍कर्म से रहित, न्यायशून्‍य तथा कार्य-साधन के उपायों से अनभिज्ञ पुरूष को सचिव के रूप में अपनाता है, वह नपुसंक क्षत्रिय है। युधिष्ठिर! राजधर्म के अनुसार केवल उग्रभाव अथवा केवल मृदुभाव की प्रशंसा नहीं की जाती है। उन दोनों में से किसी का भी परित्‍याग नहीं करना चाहिये। इसलिये तुम पहले उग्र होकर फिर मृदु होओ। वत्‍स! यह क्षत्रियधर्म कष्‍टसाध्‍य है। तुम्‍हारे ऊपर मेरा स्‍नेह है, इसलिये कहता हूं। विधाता ने तुम्‍हें उग्र कर्म के लिये ही उत्‍पन्‍न किया है; इसलिये तुम अपने धर्म में स्थित होकर राज्‍य का शासन करो। भरत श्रेष्‍ठ! आपत्तिकाल में भी सदा दुष्‍टों का दमन और शिष्‍ट पुरूषों का पालन करना चाहिये, ऐसा बुद्धिमान शुक्राचार्य का कथन है। युधिष्ठिर ने पूछा- सत्‍पुरूषों में श्रेष्‍ठ पितामह! इस जगत में यदि कोई ऐसी मर्यादा है, जिसका दूसरा कोई उल्‍लंघन नहीं कर सकता तो मैं उसके विषय में आपसे पूछता हूं। आप वही मुझे बताइये। भीष्‍मजी ने कहा-राजन्! विद्या में बढे़–चढे़ तपस्‍वी तथा शास्‍त्रज्ञान, उत्‍तम चरित्र एवं सदाचार से सम्‍पन्‍न ब्राह्मणों का ही सेवन करे, यह परम उत्‍तम एवं पवित्र कार्य है। नरेश्‍वर! देवताओं के प्रति जो तुम्‍हारा बर्ताव है, वही भाव और बर्ताव ब्राह्मणों के प्रति भी सदैव होना चाहिये; क्‍योंकि क्रोध मे भरे हुए ब्राह्मणों ने अनेक प्रकार के अद्भुत कर्म कर डाले हैं। ब्राह्मणों की प्रसन्‍नता से श्रेष्‍ठ यश का विस्‍तार होता है। उनकी अपसन्‍नता से महान् भय की प्राप्ति होती है। प्रसन्‍न होने पर ब्राह्मण अमृत के समान जीवनदायक होते हैं और कुपित होने पर विष के तुल्‍य भयंकर हो उठते है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत आपद्धर्मपर्व में बयालिसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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