महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 146 श्लोक 1-19

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षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
कबूतर के द्वारा अतिथि–सत्‍कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिये परित्‍याग

भीष्‍मजी कहते है- राजन्! पत्नि की वह धर्म के अनुकूल और युक्ति‍युक्‍त बात सुनकर कबूतर को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उसके नेत्रों में आनन्‍द के आंसू छलक आये। उस पक्षी ने पक्षियों की हिंसा से ही जीवन–निर्वाह करने वाले उस बहेलिये की ओर देखकर शास्‍त्रीय विधि के अनुसार यत्‍नपूर्वक उसका पूजन किया। और बोला- ‘आज आपका स्‍वागत है। बोलिये, मैं आपकी क्‍या सेवा करूं ? आपको संताप नहीं करना चाहिये, आप इस समय अपने ही घर में हैं। ‘अत: शीघ्र बताइये, आप क्या चाहते हैं? मैं आपकी क्या सेवा करूं? मैं बडे़ प्रेम से पूछ रहा हूं क्योंकि आप हमारे घर पधारे हैं। ‘यदि शत्रु भी घर पर आ जाय तो उसका उचित आदर-सत्‍कार करना चाहिये। जो काटने के लिये आया हो, उसके ऊपर भी वृक्ष अपनी छाया नहीं हटाता। ‘यों तो घरपर आये हुए अतिथि का सभी को यत्नपूर्वक आदर-सत्‍कार करना चाहिये; परंतु पंचयज्ञ के अधिकारी गृहस्‍थ का यह प्रधान धर्म है। जो मो‍हवश गृहस्‍थाश्रम में रहते हुए भी पन्‍चमहायज्ञों का अनुष्‍ठान नहीं करता, उसके लिये धर्म के अनुसार न तो यह लोक प्राप्‍त होता है और न परलोक ही। ‘अत: तुम पूर्ण विश्‍वास रखकर मुझसे अपनी बात बताओ, तुम अपने मुंह से जो कुछ कहोगे, वह सब मैं करूंगा अत: तुम मन में शोक न करो। कबूतर की यह बात सुनकर व्‍याध ने कहा- ‘इस समय मुझे सर्दी का कष्‍ट है; अत: इससे बचाने का कोई उपाय करो। उसके ऐसा कहने पर पक्षी पृथ्‍वी पर बहुत–से पते लाकर रख दिये और आग लाने के लिये अपने पंखों द्वारा यथा शक्ति बड़ी तेजी से उड़ान लगायी । वह लुहार के घर जाकर आग ले आया और सूखे पत्‍तों पर रखकर उसने वहां अग्नि प्रज्‍वलित कर दी। इस प्रकार आग को बहुत प्रज्‍वलित करके कबूतरने शरणगत अतिथि से कहा- ‘भाई अब तुम्‍हें कोई भय नहीं है। तुम निश्चिन्‍त होकर अपने सारे अंगों को आग से तपाओ। तब उस व्‍याधने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर अपने सारे अंगों को तपाया। अग्नि का सेवन करके उसकी जान में जान आयी। तब वह कबूतर से कुछ कहने को उद्यत हुआ। शास्‍त्रीय विधि से सत्‍कार पा उसने बडे़ हर्ष में भरकर डबडबायी हुई आंखों से कबूतर की ओर देखकर कहा-‘भाई! अब मुझे भूख सता रही है; इसलिये तुम्‍हारा दिया हुआ कुछ भोजन करना चाहता हूं।‘ उसकी बात सुनकर कबूतर बोला- ‘भैया मेरे पास सम्‍पत्ति तो नहीं है, जिससे मैं तुम्‍हारी भूख मिटा सकूं। हम लोग वन वासी पक्षी हैं। प्रतिदिन चुगे हुए चारे से ही जीवन निर्वाह करते हैं। मुनियों के समान हमारे पास कोई भोजन का संग्रह नहीं रहता है’। ऐसा कहकर कबूतर का मुख कुछ उदास हो गया। वह इस चिन्‍ता में पड़ गया कि अब मुझे क्‍या करना चाहिये ? भरतश्रेष्‍ठ! वह अपनी कापोती वृति की निन्‍दा करने लगा। थोड़ी देर में उसे कुछ याद आया और उस पक्षी ने बहेलिये से कहा- ‘अच्‍छा, थोड़ी देर तक ठहरिये। मैं आपकी तृप्ति करूंगा’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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