महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 155 श्लोक 1-18
पञ्चपञ्चाशदधिकशततम (155) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
नारदजी का सेमल–वृक्ष को उसका अहंकार देखकर फटकारना
नारदजी ने कहा- शाल्मले! इसमें संशय नहीं कि तुम्हें अपना बन्धु अथवा मित्र मानने के कारण ही सर्वत्रगामी भयानक वायुदेव सदा तुम्हारी रक्षा करते हैं। शाल्मले! मालूम होता है, तुम वायु के समाने अत्यन्त विनम्र होकर कहते हो कि ‘मैं तो आपका ही हूं’ इसी से वह सदा तुम्हारी रक्षा करता है । मैं इस भूतल पर ऐसे किसी वृक्ष, पर्वत या घर को नहीं देखता, जो वायु के बल से भग्न न हो जाय। मेरा यही विश्वास है कि वायुदेव सबको तोड़कर गिरा सकते हैं। शाल्मले! कुछ ऐसे कारण अवश्य हैं, जिनसे प्रेरित होकर वायुदेव निश्चित रूप से सपरिवार तुम्हारी रक्षा करते हैं। निस्संदेह इसीसे यों ही खडे़ रहते हो। सेमल ने कहा- ब्रह्मन्! वायु न तो मेरा मित्र है, न बन्धु है, न सुहृद् ही है। वह ब्रह्मा भी नहीं है, जो मेरी रक्षा करेगा। नारद! मेरा तेज और बल वायु से भी भंयकर है। वायु अपनी प्राणशक्ति के द्वारा मेरी अठारहवीं कला को भी नहीं पा सकता। जिस समय वायु देवता वृक्ष, पर्वत तथा दूसरी वस्तुओं को तोड़ता-फोड़ता हुआ मेरे पास पहूंचता है, उस समय मैं बल से उसकी गति को रोक देता हूं। देवर्षे! इस प्रकार मैंने तोड़-फोड़ करने वाले वायु की गति को अनेक बार रोक दिया है; अत: वह कुपित हो जाय तो भी मुझे उससे भय नहीं है। नारद जी ने कहा- शाल्मले! इस विषय में तुम्हारी दृष्टि विपरीत है- समझ उलटी हो गयी है, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि वायु के बल के समान किसी भी प्राणी का बल नहीं है। वनस्पते! इन्द्र, यम, कुबेर तथा जल के स्वामी वरूण-ये भी वायु के तुल्य बलशाली नहीं है; फिर तुम जैसे सधारण वृक्ष की तो बात ही क्या है? शाल्मले! प्राणी इस पृथ्वी पर जो कुछ भी चेष्टा करता है, उस चेष्टा की शक्ति तथा जीवन देने वाले सर्वत्र सामर्थ्यशाली भगवान वायु ही हैं। ये जब शरीर में ठीक ढंग से प्राण आदि के रूप में विस्तार को प्राप्त करते हैं, तब समस्त प्राणियों को चेष्टा शील बनाते हैं और जब ये ठीक ढंग से काम नहीं करते हैं, तब प्राणियों के शरीर में विकृति आने लगती है। इस प्रकार समस्त बलवानों में श्रेष्ठ एवं पूजनीय वायु देव की जो तुम पूजा नहीं करते हो, यह तुम्हारी बुद्धि की लघुता के सिवा और क्या है। शाल्मले! तुम सारहीन और दुर्बुद्धि हो, केवल बहुत बातें बनाते हो तथा क्रोध आदि दुर्गुणों से प्रेरित होकर झूठ बोलते हो। तुम्हारें इस तरह बातचीत करने से मेरे मन में रोष उत्पन्न हुआ है; अत: मैं स्वय वायु के समाने तुम्हारे इन दुर्वचनों को सुनाऊंगा। चन्दन, स्यन्दन (तिनिश), शाल, सरल, देवदारू, वेतस (बेत), धामिन तथा अन्य जो बलवान् वृक्ष हैं, उन जितात्मा वृक्षों ने भी कभी इस प्रकार वायु–देवपर आक्षेप नहीं किया है। दुर्बुद्धे! वे भी अपने और वायु के बल को अच्छी तरह जानते है; इसीलिये वे श्रेष्ठ वृक्ष वायुदेव के सामने मस्तक झुका देते हैं। तुम तो मोहवश वायु के अनन्त बल को कुछ समझते ही नहीं हो; अत: अब मैं यहां से सीधे वायु देव के ही पास जाऊंगा।
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