महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 154 श्लोक 1-21

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चतुष्‍पञ्चाशदधिकशततम (154) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

नारदजी का सेमल–वृक्ष से प्रशंसापूर्वक प्रश्‍न युधिष्ठिर ने पूछा– पितामह! जो बलवान्, नित्‍य निकटवर्ती, उपकार और अपकार करने में समर्थ तथा नित्‍य उघोगशील है, ऐसे शत्रु के साथ यदि कोई अल्‍प बलवान्, असार एवं सभी बातों में छोटी हैसियत रखने वाला मनुष्‍य मोहवश शेखी बघारते हुए अयोग्‍य बातें कहकर वैर बांध ले और वह बलवान् शत्रु अत्‍यन्त कुपित हो उस दुर्बल मनुष्‍य को उखाड़ फेंकने के लिये आक्रमण कर दे, तब वह आक्रान्त मनुष्‍य अपने ही बल का भरोसा करके उस आक्रमणकारी के साथ कैसा बर्ताव करे? (जिससे उसकी रक्षा हो सके )। भीष्‍म जी ने कहा- भरतश्रेष्‍ठ! इस विषय में विज्ञ पुरूष वायु और सेमलवृक्ष के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। हिमालय पर्वत पर एक बहुत बड़ा वनस्‍पति था, जो बहुत वर्षों से बढ़कर प्रबल हो गया था। वह स्‍कन्‍ध, शाखा और पत्‍तों से खूब हरा–भरा था। महाबाहो! उसके नीचे बहुत–से मतवाले हाथी तथा दूसरे–दूसरे पशु धूप से पीड़ित और परिश्रम से थकित होकर विश्राम करते थे। उस वृक्ष की लंबाई चार सौ हाथ की थी। छाया बड़ी सघन थी। उस पर तोते और मैनाओं के समूह बसेरा लेते थे। वह वृक्ष फल और फूल दोनों से ही भरा था। दल बांधकर यात्रा करने वाले वणिक्, वनवासी तपस्‍वी तथा दूसरे राहगीर भी उस रमणीय एवं श्रेष्‍ठ वृक्ष के नीचे निवास किया करते थे। भरतश्रेष्‍ठ! उस वृक्षकी बड़ी–बड़ी शाखाओं तथा मोटे तनों को देखकर देवर्षि नारद उसके पास गये और इस प्रकार बोले-अहो! शाल्‍मले! तुम बडे़ रमणीय और मनोहर हो। तरूप्रवर! तुमसे हमें सदा प्रसन्‍नता प्राप्‍त होती है।‘तात! मनोहर वृक्षराज! तुम्‍हारी शाखाओं पर सदा ही बहुत–से पक्षी तथा नीचे अनेकानेक मृग एवं हाथी प्रसन्‍नतापूर्वक निवास करते हैं। ‘महान् शाखाओं से सुशोभित वनस्‍पत! मैं देखता हूं कि तुम्‍हारी शाखाओं और मोटे तनों को वायुदेव भी किसी तरह तोड़ नहीं सके हैं। ‘तात! क्‍या पवनदेव तुमसे किसी कारणवश विशेष प्रसन्‍न रहते हैं अथवा वे तुम्‍हारे सुहृद् हैं, जिससे इस वन में सदा तुम्‍हारी निश्चितरूप से रक्षा करते हैं । ‘भगवान वायु इतने वेगशाली हैं कि छोटे – छोटे वृक्षों को कौन कहे, पर्वतों के शिखरों को भी अपने स्थान से हिला देते हैं । ‘गन्धवाही पवित्र पवन पाताल, सरोवर, सरिताओं और समुद्रों को भी सुखा सकता है। ‘इसमें संदेह नहीं कि वायुदेव तुम्‍हें अपना मित्र मानने ने कारण ही तुम्‍हारी रक्षा करते हैं; इसीलिये तुम अनेक शाखाओं से सम्‍पन्‍न तथा पत्‍ते और पुष्‍पों से हरे-भरे हो। ‘तात वनस्पते! तुम्‍हारे पास यह बड़ा ही रमणीय दृश्‍य जान पडता है कि ये पक्षी तुम्‍हारी शाखाओं पर बडे़ प्रसन्न रहकर रमण कर रहे हैं। ‘वसन्‍त ॠतु में अत्‍यन्‍त मनोरम बोली बोलने वाले इन पक्षियों का अलग-अलग तथा सबका एक साथ बड़ा मधुर स्‍वर सुनायी पड़ता है। ‘शाल्‍मले! अपने यूथकुल से सुशोभित ये गर्जना करते हुए गजराज धूप से पीड़ित हो तुम्हारे पास आकर सुख पाते हैं। ‘वृक्षप्रवर! इसी प्रकार दूसरी-दूसरी जाति के पशु भी तुम्‍हारी शोभा बढा़ रहे हैं। तुम सबके निवास–स्‍थान होने के कारण मेरूपर्वत के समान सुशोभित होते हो । ‘तपस्‍या से शुद्ध हुए तापसों, ब्राह्मणों तथा श्रमणों से सयुंक्‍त हो तुम्‍हारा यह स्‍थान मुझे स्‍वर्ग के समान जान पडता है’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत आपद्धर्मपर्व में वायु और शाल्‍मलिसंवाद प्रसंग में एक सौ चौवनवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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