महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 172 श्लोक 1-16

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दिव्सप्तत्यधि‍कशततम (172) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: दिव्सप्तत्यधि‍कशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

कृतघ्‍न गौतम द्वारा मित्र राजधर्मा का वध तथा राक्षसों द्वारा उसकी हत्या और कृतघ्‍न के मांस को अभक्ष्‍य बताना भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! पक्षिराज राजधर्मा ने अपने मित्र गौतम की रक्षा के‍ लिये उससे थोडी़ दूरपर आग प्रज्‍वलित कर दी थी, जिससे हवा का सहारा पाकर बडी़–बडी़ लपटें उठ रही थीं। बकराज को भी मित्र पर विश्‍वास था; इसलिये उस समय उसके पास ही सो गया। इधर वह दुष्‍टात्‍मा कृतध्‍न उसका वध करने की इच्छा से उठा और विश्‍वासपूर्वक सोये हुए राजधर्मा को सामने से जलती हुई लकड़ी लेकर उसके द्वारा मार डाला। उसे मारकर वह बहुत प्रसन्न हुआ, मित्र के वध से जो पाप लगता है, उसकी ओर उसकी दृष्टि नहीं गयी । उसने मरे हुए पक्षी के पंख और बाल नोचकर उसे आग में पकाया और उसे साथ में ले सुवर्ण का बोझ सिरपर उठाकर वह ब्राह्मण बड़ी तेजी के साथ वहां से चल दिया। भारत! उस दिन दक्षकन्याका पुत्र राजधर्मा अपने मित्र विरूपाक्ष के यहां न जा सका; इससे विरूपाक्ष व्याकुल हृदय से उसके लिये चिन्ता करने लगा। तदनन्तर दूसरा दिन भी व्यतीत हो जाने पर विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहा- ‘बेटा! मैं आज पक्षियों में श्रेष्‍ठ राजधर्मा को नहीं देख रहा हूं। ‘वे पक्षिप्रवर प्रतिदिन प्रात:काल ब्रह्माजी की वन्दना करने के लिये जाया करते थे और वहां से लौटने पर मुझसे मिले बिना कभी अपने घर नहीं जाते थे। ‘आज दो संध्‍याएं व्यतीत हो गयीं; किंतु वह मेरे घरपर नहीं पधारे, अत: मेरे मन में संदेह पैदा हो गया है। तुम मेरे मित्र का पता लगाओ। ‘वह अधम ब्राह्मण गौतम स्वाध्‍यायरहित और ब्रह्मतेज से शून्‍य था तथा हिंसक जान पड़ता था। उसी पर मेरा संदेह है। कहीं वह मेरे मित्र को मार न डाले। ‘उसकी चेष्‍टाओं से मैंने लक्षित किया तो वह मुझे दुर्बुद्धि एवं दुराचारी तथा दयाहीन प्रतीत होता था। वह आकार से ही बड़ा भयानक और दुष्‍ट दस्‍यु के समान अधम जान पड़ता था। ‘नीच गौतम यहां से लौटकर फिर उन्हीं के निवास–स्थान पर गया था; इसलिये मेरे मन मे उद्वेग हो रहा है। बेटा! तुम शीघ्र यहां से राजधर्मा के घर जाओ और पता लगाओ कि वे शुद्धात्‍मा पक्षिराज जीवित हैं या नहीं। इस कार्य में विलम्‍ब न करो’। पिता की ऐसी आज्ञा पाकर वह तुंरत ही राक्षसों के साथ उस वटवृक्ष के पास गया। वहां उसे राजधर्मा का कंकाल अर्थात् उसके पंख, हड्डियों और पैरों का समूह दिखायी दिया। बुद्धिमान् राक्षसराज का पुत्र राजधर्मा की सह दशा देखकर रो पड़ा और उसने पूरी शक्ति लगाकर गौतम को शीघ्र पकड़ने की चेष्‍टा की। तदनन्तर कुछ ही दूर जाने पर राक्षसों ने गौतम को प‍कड़ लिया। साथ ही उन्हें पंख, पैर और हड्डियों से रहित राजधर्मा की लाश भी मिल गयी। गौतम का लेकर वे राक्षस शीघ्र ही मेरूव्रज में गये। वहां उन्होंने राजा को राजधर्मा का मृत शरीर दिखाया और पापाचारी कृतघ्‍न गौतम को भी सामने खड़ा कर दिया। अपने मित्र को इस दशा में देखकर मन्त्री और पुरोहितों के साथ राजा विरूपाक्ष फूट–फूटकर रोने लगे। उनके महल में महान् आर्तनाद गूंजने लगा। स्त्री और बच्चों सहित सारे नगर में शोक छा गया। किसी का भी मन स्व न रहा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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